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Top 71 Best Latest Story in Hindi

    कृतज्ञता ज्ञापन Story in Hindi

    भारतीय संस्कृति में उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने की प्रेरणा दी गई है, जिनसे हम लाभान्वित होते हैं। गीता मर्मज्ञ स्वामी रामसुखदासजी लिखते हैं, ‘श्रीमद्भगवद्गीता में गृहस्थ पर देव ऋण, ऋषि ऋण, प्राणी ऋण, कुटुंबीजन ऋण और पितृ ऋण-ये पाँच ऋण बताए गए हैं।

    सूर्य चंद्रमा से हमें दिव्य जीवनी शक्ति व प्रकाश मिलता है। प्रकृति से ही हम सबको जल, अन्न, फल, प्रकाश तथा अन्य वस्तुएँ मिलती हैं। इसे देव ऋण बताया गया है। हवन करने से देवताओं की पुष्टि होती है। देव ऋण से मुक्ति के लिए हवन-यज्ञ आवश्यक बताया गया है।

    ऋषि-मुनियों-विद्वानों ने शास्त्रों स्मृतियों की रचना करके अपनी अनुभूतियों से हमें ज्ञानरूपी प्रकाश व शिक्षा प्रदान की है। उनके द्वारा रचित सद्गंथों का अध्ययन करके, स्वाध्याय करके, संध्या गायत्री जाप करके हम ऋषि ऋण से मुक्त हो सकते हैं।

    सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारा कर्तव्य है कि समाज के प्रत्येक प्राणी के हित के लिए कोई न कोई कर्म अवश्य करते रहें । समाज के अभावग्रस्त व्यक्तियों, रोगियों की सेवा-सहायता को धर्मशास्त्रों में परम धर्म कहा गया है। हमें समाज के प्रति ऋण मुक्ति के लिए अन्नदान, जल की व्यवस्था, औषधालयों की स्थापना जैसे सेवा-परोपकार के कार्य निरंतर करते रहना चाहिए।

    माता-पिता अपनी संतान का पालन-पोषण करने में सारा जीवन लगा देते हैं। संतान उनकी जीवनभर सेवा करके भी उऋण नहीं हो सकती। उनकी मृत्यु के पश्चात् शास्त्रानुसार अंत्येष्टि करके ही हम उनके ऋण से उऋण हो सकते हैं।

    सफलता के साधन Story in Hindi

    किसी लक्ष्य की प्राप्ति में श्रद्धा का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। यदि किसी कार्य को श्रद्धा, निष्ठा और विवेक से किया जाए, तो सफलता मिलने में कोई संदेह नहीं रहता।

    उपनिषदों में कहा गया है, ‘अंतरात्मा का ज्ञान सहज स्फुरित व प्रत्यक्ष होता है और ऐसी अंतरात्मा की क्रिया को ही श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा अपने आपमें सदा अविचल होती है। इसमें तर्क-वितर्क का स्थान नहीं होता। ‘ वेदों में कहा गया है कि विवेक व श्रद्धा के माध्यम से ही भगवान् की प्राप्ति संभव है।

    श्रद्धा सूक्त में आह्वान किया जाता है, ‘हे श्रद्धे, हम लोगों को अपने इष्ट की प्राप्ति के साधन में श्रद्धावान बनाओ।’ सिद्धांतों व नैतिक मूल्यों की रक्षा के लिए,

    धर्म और कर्तव्य के प्रति श्रद्धा भावना के कारण ही हजार-हजारों लोग प्राणोत्सर्ग तक करने को तैयार हो जाते हैं। यदि राष्ट्र के प्रति श्रद्धा है, तो वह ‘मातृभूमि’ की तरह पूजनीय बन जाता है और अगर श्रद्धा नहीं है, तो वह जमीन का टुकड़ा मात्र है।

    श्री अरविंद आश्रम की श्रीमाँ कहती हैं, ‘अंतरात्मा से उपजी श्रद्धा सदा सच्ची होती है, पर यदि तुम्हारी बाह्य सत्ता में छल-कपट है और यदि तुम आध्यात्मिक जीवन के बदले वैयक्तिक सिद्धियों की प्राप्ति का प्रयत्न कर रहे हो, तो यह चीज तुम्हें पथभ्रष्ट कर सकती है।’

    वास्तव में जब श्रद्धा विवेकहीन होकर, चाहे जिसके प्रति आकृष्ट होने लगती है, तो वह ‘अंध श्रद्धा’ बनकर पतन का कारण बनती है। स्वयं सदाचार का जीवन जीने वाला और छल-प्रपंच से दूर रहनेवाला ही श्रद्धा का वास्तविक लाभ उठाने का पात्र होता है।

    मोह-लोभ का जाल Story in Hindi

    अवधूत दत्तात्रेय एक दिन नदी के किनारे टहल रहे थे । उन्होंने देखा कि एक मछुआरा बिलकुल नदी के तट पर बैठा लोहे के बने छोटे से काँटे पर मांस का टुकड़ा लगा रहा है।

    दत्तात्रेय ने उससे इसका कारण पूछा, तो वह बोला, ‘मैं काँटे में मांस का टुकड़ा लगाकर उसे पानी में छोडूँगा । मांस के लालच में मछली काँटे पर झपटेगी। इस क्रम में उसका मुँह लोहे के काँटे से बँध जाएगा, फिर मैं उसे पकड़ लूँगा।”

    दत्तात्रेयजी ने उससे सवाल पूछा, ‘भैया, यदि मछली ने मांस का टुकड़ा निगलकर काँटा उगल दिया, तो वह कैसे फँसेगी?’ मछुआरे ने जवाब दिया, ‘बाबा, क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि विषयों को निगलना सरल है, पर उगलना अत्यंत कठिन।’

    दत्तात्रेयजी को शास्त्र वचन याद आ गया कि प्राणी जब एक बार लोभ-लालच, मोह-ममता आदि में फँस जाता है, तो फिर दुःख-पर- दुःख भोगने को मजबूर हो जाता है।

    वह सांसारिक सुखों को दुःख का कारण जान लेने के बावजूद उनसे मुक्ति का रास्ता नहीं खोज पाता और अंत में विषय-भोग की तृष्णा में उसका जीवन बेकार चला जाता है।

    तीर्थंकर महावीर ने कहा था, ‘जो विषय-भोगों में एक बार रम जाता है, उन्हें त्यागना उसके लिए दूभर हो जाता है। अतः यह जान लेना चाहिए कि सांसारिक सुखों का आकर्षण असल में दुःख का कारण है।

    भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, ‘सांसारिक मोह के कारण ही मनुष्य क्या करूँ, क्या न करूँ की दुविधा में फँसकर कर्तव्य से विमुख हो जाता है। इसलिए सांसारिक सुखों के वशीभूत कदापि नहीं होना चाहिए।’

    दान में अभिमान कैसा Story in Hindi

    ईसा के एक शिष्य को शेखी बघारने की आदत थी। एक दिन वह ईसा के दर्शन को पहुँचा और बोला, ‘आज मैं पाँच गरीबों को खाना खिलाकर आया हूँ। जब तक मैं किसी की सहायता न कर दूँ, मुझे चैन नहीं मिलता। बिना प्रार्थना किए मुझे नींद भी नहीं आती।

    ईसा उसे उपदेश देते हुए कहते हैं, ‘तुम्हारा आज का सेवा पुण्य समाप्त हो गया। जो दिखावे के लिए किसी की सहायता करता है, समझ लो कि वह नाटक करता है।

    किसी की सहायता गुप्त रूप से करनी चाहिए।’ कुछ क्षण रुककर उन्होंने आगे कहा, ‘तुम्हारा सेवा-सहायता का कार्य इतना गुप्त हो कि बाएँ हाथ को भी पता न चल सके कि दाहिने हाथ से तुमने क्या दान दिया है या किसी की मदद की है।’

    ईसा मसीह सार्वजनिक प्रार्थना को महत्त्व नहीं देते थे उन्होंने कहा था, ‘जब तुम प्रार्थना करो, तब पाखंडियों के सदृश मत बनो क्योंकि सभागृहों और चौराहों पर खड़े होकर प्रार्थना करनेवालों की यही आकांक्षा होती है कि लोग उन्हें देखें और सराहें।

    पिता परमेश्वर गुप्त कार्यों को भी देखता है, इसलिए वह तुम्हें उन कर्मों का भी फल देगा। ढिंढोरा पीटने से कोई लाभ नहीं।’

    गांधीजी कहते थे, ‘जो किसी से कुछ स्वार्थ सिद्ध करने या समाज में प्रशंसित होने के लिए किसी की सहायता करता है, वह पुण्य नहीं, पाप अर्जित करता है।

    किसी प्रकार का स्वार्थ अधर्म है।’ वैसे भी कहा गया है, “अहंकार व स्वार्थ का सर्वदा त्याग करके की गई निष्काम सेवा ही फलदायी होती है। संपत्ति हमारी है नहीं, फिर किसी को देने में अभिमान कैसा?

    बुरा न देखो, न सुनो Story in Hindi

    वेद, पुराण, बाइबिल आदि सभी ग्रंथों में किसी की निंदा करने और सुनने तथा दोष दर्शन को वाणी, नेत्रों और कानों का पाप कहा गया है। बाइबिल में लिखा है,

    ‘जो बुराई सुनता है, किसी की निंदा करता है, वह व्यर्थ ही अपना शत्रु पैदा करता है। जो किसी की बुराई देखने को तत्पर रहता है, वह अपनी आँखों को अपवित्र करता है। यदि दोष ढूँढ़ना हो, तो अपना दोष तलाश कर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए।

    अरब देश में उच्च कोटि के एक फकीर रहते थे। लोग उन्हें बहरा समझकर ‘बहरा हातिम’ कहते थे। एक दिन कुछ लोग हातिम के दर्शन के लिए पहुंचे।

    वे पास बैठे थे कि सामने की दीवार पर मक्खी मकड़ी के जाल में फँस गई और छुटकारा पाने के लिए भिनभिनाने लगी। एकाएक हातिम के मुँह ने निकला, ‘ऐ लोभ की मारी, अब क्यों भिनभिना रही है?

    तू,शहद और कंद के लोभ में घूमती-घूमती मकड़ी द्वारा फैलाए जाल में फँसकर उसकी शिकार बन जाती है। अब फँस चुकी तो लोभ का परिणाम।

    भुगत सामने बैठे लोग हैरान थे कि हातिम बहरे हैं, तो उन्होंने मक्खी की भिनभिनाहट कैसे सुन ली। एक व्यक्ति ने पूछ ही लिया, तो संत हातिम ने कहा, ‘मैं अपने कानों में किसी की बुराई या अपनी बड़ाई के शब्द नहीं आने देना चाहता।

    लोग मुझे बहरा समझकर मुझसे बेकार की बातें नहीं करते। मैं बुरे शब्द सुनने से बचा रहता हूँ। साथ ही यदि कोई बहरा समझकर आपस में मेरे दोष का वर्णन करता है, तो मैं उन्हें चुपचाप दूर करने का प्रयत्न करता हूँ। इस तरह बहरा बनने से मुझे अनायास कई फायदे हो जाते हैं।

    तेरा साईं तुझमें Story in Hindi

    एक बार एक विद्यालय में अध्यापक ने छात्रों की परीक्षा लेने के लिए प्रश्न किया, ‘बताओ ईश्वर कहाँ है?’ एक छात्र ने कहा, ‘गुरुदेव, भगवान् मंदिर में हैं। हम वहाँ उनके दर्शन करने जाते हैं। दूसरे छात्र ने कहा, ‘गिरिजाघर में। हम संडे को वहाँ जाकर प्रभु की प्रार्थना करते हैं।’

    तीसरे ने कहा, ‘मसजिद में। हम वहाँ रोजाना नमाज अता करते हैं।’ चौथे ने कहा, ‘गुरुद्वारे में। हम वहाँ मत्था टेकने जाते हैं।’ जब पाँचवें छात्र का नंबर आया, तो उसने खड़े होकर विनम्रता से कहा,

    गुरुदेव, कृपया आप यह बताने की कृपा करें कि ईश्वर कहाँ नहीं हैं?’ यह सुनते ही अध्यापक ने छात्र को सीने से लगाते हुए कहा, ‘तू असली निष्कर्ष पर पहुँचा है कि ईश्वर सर्वव्यापी हैं।’

    संत कबीरदासजी अपनी साखी में कहते हैं

    ‘तेरा साईं तुझमें ज्यों पुष्पन में बास। कस्तूरी का मिरग ज्यों ढूंढे फिरै सुवास॥

    यानी तेरा साईं (परमात्मा) तुझमें ऐसे बसा हुआ है, जैसे पुष्पों में खुशबू। फिर भी तू कस्तूरी मृग की तरह कस्तूरी की गंध को बाहर ढूँढ़ता हुआ क्यों फिर रहा है? ईश्वर तो तेरे हृदय में ही विराजमान है।

    संत तुकाराम कहते हैं, ‘जो देव सर्वव्यापक है, वह मेरे हृदय में नहीं है, यह कैसे संभव हो सकता है?’ संत तुलसीदास भी कहते हैं, ‘सियाराम मय सब जग जानी, करहूं प्रणाम जोरि जुग पानी।’

    श्रीमद्भगवतगीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘इस जगत् को भगवान् का ही स्वरूप मानकर मनुष्य भगवान् के विराट रूप के दर्शन कर सकता है। सचमुच ईश्वर कण-कण में वास करते हैं और हर जीव में बसते हैं।

    परोपकाराय पुण्याय Story in Hindi

    राजगृह में धन्य नामक बुद्धिमान सेठ रहता था। उसकी पत्नी का निधन हो गया। उसकी चार पुत्रवधुएँ थीं-उज्झिका, भोगवती, रक्षिका और रोहिणी।

    सेठ ने सोचा कि क्यों न इन चारों बहुओं को परखकर किसी एक को घर का दायित्व सौंप दिया जाए। एक दिन उसने चारों बहुओं को पास बिठाया और कहा,

    तुम चारों को धान के पाँच-पाँच दाने देता हूँ। इन्हें सँभालकर रखना और जब मैं माँगें, उन्हें लौटा देना।’ चारों खुशी-खुशी दाने लेकर चली गईं।

    बड़ी बहू ने सोचा कि चूँकि कोठार में धान भरा हुआ है, इसलिए जब ससुरजी माँगेंगे, तो वहाँ से पाँच दाने लाकर दे दूंगी। उसने दाने कूड़े में फेंक दिए। दूसरी ने भी यही सोचा।

    तीसरी कुछ समझदार थी। उसने दानों को रेशमी कपड़े में बाँधा और रत्नों से भरी पेटिका में रख दिया। चौथी रोहिणी सत्संग किया करती थी। उसने सोचा कि कोई भी सत्कर्म करने से वे बढ़ते रहते हैं, इसलिए उसने पाँचों दानों को अपने खेत में बो दिया।

    उससे जो फसल पैदा हुई, उसने उन्हें फिर से खेत में रोप दिया। इस तरह कुछ ही वर्षों में उसके पास इतना धान हो गया कि उसका कोठार भर गया।

    पाँच वर्ष बाद सेठ ने चारों बहुओं से दाने वापस मॉँगे। शुरू की तीन बहुओं ने दाने वापस कर दिए, पर रोहिणी ने सारी कहानी सुनाते हुए कहा, ‘पिताजी, वे पाँच दाने कोठार में बंद हैं और मैं लाने में असमर्थ हूँ।

    सेठ प्रसन्न हुआ और उसने बहुओं से कहा, ‘जिस प्रकार धान बोने से बढ़े हैं, उसी प्रकार सेवा-परोपकार से पुण्य बढ़ते हैं ।’ उसने घर की मालकिन छोटी बहू को बना दिया।

    सबसे अच्छा गुण Story in Hindi

    भगवान् श्रीराम समय-समय पर अपने गुरुदेव वशिष्ठजी के आश्रम में जाकर उनका सत्संग किया करते थे । एक दिन सत्पुरुषों के सत्संग के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए महर्षि वशिष्ठजी ने कहा, ‘रघुकुल भूषण राम! जिस प्रकार दीपक अंधकार का नाश करता है,

    उसी प्रकार विवेक ज्ञान संपन्न महापुरुष हृदय स्थित अज्ञानरूपी अंधकार को सहज ही में हटा देने में सक्षम होते हैं। इसलिए सभी धर्मग्रंथों में प्रतिदिन किसी-न- किसी सत्पुरुष के सत्संग तथा शास्त्रों के स्वाध्याय पर बल दिया गया है।’

    महर्षि वशिष्ठ ने अपने शिष्य श्रीराम से आगे कहा, ‘विवेकी महापुरुष इंद्रियनिग्रही, परम विरक्त तथा हर क्षण ब्रह्म का चिंतन करने वाले होते हैं। जिनमें तमोगुण का सर्वथा अभाव है, जो रजोगुण से रहित हैं, जिनमें संसार के प्रति वैराग्य सुदृढ़ हो जाता है,

    ऐसे सत्पुरुषों का सान्निध्य बड़े भाग्य और पुण्य से प्राप्त होता है। उनका सान्निध्य पाते ही सभी सांसारिक भोगों की तृष्णा नष्ट हो जाती है। आनंदस्वरूप आत्मा की अनुभूति हो जाने से साधक धन-संपत्ति, भोग-वैभव त्याग देने को सहज ही तत्पर हो जाता है।

    श्रीराम ने पूछा, ‘गुरुवर, ऐसे महापुरुष का सर्वोत्कृष्ट गुण क्या होता है? वशिष्ठ बताते हैं, ‘उसका नाम है, विवेक। विवेक अधिकारी पुरुष की हृदयरूपी गुफा में ऐसे स्थित हो जाता है, जैसे निर्मल आकाश में चंद्रमा। विवेक ही वासनायुक्त अज्ञानी जीव को ज्ञान प्रदान करता है।

    ज्ञानस्वरूप आत्मा ही सबसे बड़ा परमेश्वर है। ज्ञानरूपी चिदात्म सूर्य का उदय होते ही संसाररूपी रात्रि में विचरता हुआ मनरूपी पिशाच नष्ट हो जाता है।’

    मन को साधो Story in Hindi

    हमारे सभी शुभ-अशुभ कर्मों का कारण मन है। उपनिषद् में कहा गया है, ‘मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयोः।’ अर्थात् मन के परिष्कृत शुद्ध हो जाने से या उसमें सत्य को प्रतिष्ठित करने से स्वतः दया, करुणा, उदारता, सेवा, परोपकार जैसे सद्गुणों का समावेश हो जाता है।

    भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं, जिसका मन वश में है, राग-द्वेष से रहित है, वह स्थायी प्रसन्नता प्राप्त करता है। उस प्रसन्नता से वह संपूर्ण दुःखों से मुक्ति पा लेता है। जो पुरुष मन को संयमित कर लेने में सफल हो जाता है, वह कर्मयोगी और संन्यासी ही समझने के योग्य है।’

    भगवान् बुद्ध अपने प्रिय शिष्य आनंद की जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहते हैं, ‘अपने मन पर विजय पा लेना या अपने अंतःकरण को किसी भी तरह की लालसा से मुक्त कर लेना और भोग को भोगते हुए समय आने पर उसे छोड़ देने की सामर्थ्य अपने भीतर उत्पन्न कर लेना ही वास्तविक मोक्ष है।

    मन को मारने से इच्छाएँ नहीं मरतीं, इसलिए मन को मारने की नहीं, साधने की जरूरत है। मन कभी खाली नहीं रह सकता। अतः उसे नकारात्मक विचारों से मुक्त रखकर हमेशा सकारात्मक विचारों का ही मंथन करते रहना चाहिए।

    श्रीमद्भगवद् गीता में चंचल मन का निग्रह करने का उपाय बताते हुए कहा गया है, ‘यह मन जहाँ-जहाँ विचरण करता है, उसे वहाँ -वहाँ से हटाकर एक परमात्मा में ही लगाएँ। सत्यस्वरूप परमात्मा को मन में धारण करें।

    संतों ने भी मन में गलत धारणा पनपने को ‘मानसिक पाप कर्म’ बताया है, इसलिए मन को हमेशा परमात्मा में लगाना चाहिए।

    क्रोध से सर्वनाश Story in Hindi

    सभी धर्मग्रंथों में काम, क्रोध और लोभ को पतन का कारण बताया गया है। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं

    त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत वयं त्यजेत॥’

    अर्थात् काम, क्रोध और लोभ नरक के द्वार हैं। ये तीनों आत्मा को नष्ट कर देते हैं, इसलिए इनको त्यागना ही उचित है।

    इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आने से अनायास क्रोध पनपता है। क्रोध के आवेग से बुद्धि नष्ट हो जाती है। बुद्धि नष्ट हो जाने से पतन का रास्ता साफ हो जाता है। पग-पग पर देखने में आता है कि कामनाओं का कभी अंत नहीं होता। आकांक्षा संतोष और शांति में बाधा डालने वाली होती है।

    सुविख्यात दार्शनिक सिसरो ने कहा था, ‘इच्छाओं की प्यास कभी नहीं बुझती और न आदमी कभी पूर्ण रूप से संतुष्ट हो सकता है। स्वामी विवेकानंद ने भी कहा है,

    ‘कामना सागर की भाँति अतृप्त है। ज्यों-ज्यों सागर में पीछे से जल की आपूर्ति होती रहती है, त्यों-त्यों सागर का कोलाहल बढ़ता रहता है।

    यह स्पष्ट है कि कामनाएँ पूरी न हो पाने के कारण ही मानव हर समय तनावग्रस्त बना रहता है। अधिकांश रोगों का कारण भी तरह-तरह की लालसाएँ ही हैं।

    क्रोध से बचने के भी शास्त्रों में उपाय बताए गए हैं। ऋग्वेद में कहा गया है, ‘कामनाएँ कम करने के लिए सात्त्विक और मर्यादापूर्वक जीवन जीना चाहिए। क्रोध को नम्रता से परास्त किया जा सकता है।’

    संत कबीरदास क्रोध से मुक्ति का साधन सत्पुरुषों और संतों का सत्संग बताते हुए कहते हैं, ‘दसों दिसा से क्रोध की, उठी अपर बल आगि। सीतल संगति साधु की, तहां उबरिये भागि॥

    तप का रहस्य Story in Hindi

    स्वामी रामतीर्थ एक बार किसी तीर्थ में भ्रमण कर रहे थे। उन्होंने देखा कि एक साधुवेशधारी रेती पर बैठा हुआ है। उसके चारों ओर अग्नि प्रज्ज्वलित थी।

    उसके आस-पास देखने वालों की भारी भीड़ लगी थी। पूछने पर पता चला कि वह कोई तपस्वी बाबा हैं और वहाँ तप कर रहे हैं। इस पर स्वामीजी ने कहा, ‘तप एकांत में किया जाता है। उसका इस तरह सार्वजनिक प्रदर्शन उचित नहीं।

    महर्षि पतंजलि ने लिखा है, ‘समस्त द्वंद्वों को सहन करना ही तप है।’ आचार्य चाणक्य कहते हैं, अपनी इंद्रियों का निग्रह करना ही तप है। हम अपनी कर्मेंद्रियों-ज्ञानेंद्रियों पर संयम करें, तभी तपस्वी कहलाने के अधिकारी हैं।

    मुनि याज्ञवल्क्य ने भी लिखा है, ‘वही सच्चा संत और तपस्वी है, जिसने इंद्रियों पर नियंत्रण प्राप्त करने में सफलता प्राप्त कर ली है । आत्मसंयमी ही सच्चा तपस्वी है।’

    बृहदारण्यकोपनिषद् में कहा गया है, ‘स्वाध्याय से ज्ञान प्राप्त करनेवाला, यज्ञ, दानादि सत्कर्म करनेवाला, दूसरों के हित के लिए तत्पर रहनेवाला ही मुनि है।

    धर्मशास्त्रों में साधुता, तप, उपवास आदि की जो व्याख्या की गई है, उसके विपरीत आचरण करनेवालों को ही आज संत, महात्मा, तपस्वी की संज्ञा दी जाने लगी है,

    पर हमें नहीं भूलना चाहिए कि जो धन-संपत्ति की इच्छा से रहित हो जाता है, जिसे सांसारिक पदार्थों के प्रति किं चित भी आसक्ति नहीं रहती, जिसे लोभ-मोह छू तक नहीं गया है, वही पूर्ण संयमी, शांत बनकर साधुता का पात्र बन सकता है। सच्चा साधु ही तप द्वारा मोक्ष प्राप्त करने का अधिकारी बनता है।

    लोभ-लालच से दूर Story in Hindi

    कौशांबी के राजा जितशत्रु विद्वानों का बड़ा सम्मान करते थे। उन्होंने चौदह विद्याओं में पारंगत तथा परम तपस्वी ब्राह्मण काश्यप को राजपंडित मनोनीत किया था।

    अचानक काश्यप की मृत्यु हो गई। उनके पुत्र कपिल ने एक दिन अपनी माँ से पूछा, ‘माँ, जब राजा का पुत्र राजा की जगह ले सकता है, तो मैं राजपंडित क्यों नहीं बन सकता?’

    माँ ने कहा-‘राजपंडित की पदवी तेरे पिता को विद्वान् त्यागी, तपस्वी होने के कारण मिली थी। यदि तू भी विद्वान् हो जाएगा, तो तुझे भी वह पदवी मिल सकती है।’

    वहाँ वह एक सेठ के पास रहने लगा। सेठ की दासी उसके भोलेपन पर रीझ गई। उसने देखा कि कपिल धनाभाव में दिन काटता है, सो उसने उसे बताया कि श्रावस्ती के राजा के द्वार पर जो कोई सुबह-सवेरे सबसे पहले उसका अभिनंदन करता है, उसे वह दो स्वर्ण मुद्राएँ देता है।

    कपिल राजमहल की ओर चल पड़ा। वहाँ द्वारपालों ने उसे चोर समझकर पकड़ लिया। उसे राजा के सामने ले जाया गया। कपिल ने साफ-साफ बता दिया कि वह पढ़ाई करने श्रावस्ती आया है और स्वर्ण मुद्राएँ लेने महल में।

    राजा यह सुनकर प्रसन्न हुआ और उसे मनमाफिक चीज माँगने की आजादी दे दी। कपिल ने पहले सोचा कि एक सौ स्वर्ण मुद्राएँ माँग ली जाएँ, पर जल्दी ही उसकी लालसा बढ़ने लगी। तभी अचानक उसे गुरु के शब्द याद आ गए कि ब्राह्मण को लोभ-लालच से दूर रहना चाहिए।

    उसने तुरंत राजा से माफी माँगी और कहा कि उसे कुछ नहीं चाहिए । राजा ने उसके निर्लोभी आचरण को देखते हुए उसे श्रावस्ती का राजपंडित बना दिया।

    प्रेम ही परमात्मा Story in Hindi

    महर्षि अरविंद से एक दिन एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया, ‘क्या ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है?’ महर्षि ने उत्तर दिया, ‘जिस प्रकार प्रेम और सुख की मात्र अनुभूति की जा सकती है, उसी प्रकार सच्चा प्रेम करना सीखो, ईश्वर की अनुभूति स्वयं होने लगेगी । ‘

    कुछ क्षण रुककर उन्होंने फिर कहा, ‘क्या कोई वायु, गंध आदि का साकार रूप देख सकता है? उसी प्रकार यदि कोई सच्चे हृदय से भगवान् के दर्शन के लिए उसके प्रेम में तड़पने लगे, तो उसे सहज ही में प्रभु के दर्शन की अनुभूति होने लगती है।

    महर्षि अरविंद ने आगे कहा, ‘हम सभी वस्तुओं में ईश्वर का अनुभव कर रहे हैं। सूर्य, चंद्र, तारे, वृक्ष, वनस्पति, समुद्र और सरिताएँ उसी का गुणगान कर रही हैं।

    यह विशाल विश्व उसका खेल ही नहीं है, उसमें महान प्रज्ञान की गहराई छिपी है। सांसारिक सुखों के झूठे आकर्षण ने आज मनुष्य को भ्रमित कर भटकाया है। इसी भ्रामक स्थिति के कारण मानव अपने दुःख और कष्ट को ही सुख मानने लगा है।

    वे आगे कहते हैं, ‘शाश्वत प्रेम का अभ्यासी व्यक्ति मानवीय वस्तुओं को भी ईश्वरीय बना देने की क्षमता रखता है। सच्चा प्रेम ही पृथ्वी और स्वर्ग के बीच ज्वलंत श्रृंखला के समान है प्रेम ही पृथ्वी पर ईश्वर का देवदूत है।

    प्रेम के स्वर्ण पंखों में वह शक्ति है, जो अनेक लोगों तक पहुँचकर सत्य का साक्षात्कार कर सकती है। अरविंद अकसर कहा करते थे, ‘आत्म तत्त्व को जान लेना ही सच्चा ज्ञान है, मुक्ति का साधन है।

    सेवा-परोपकार सर्वोपरि Story in Hindi

    भारतीय संस्कृति मानवता और सहिष्णुता का संदेश देती रही है । कहा गया है, ‘एक सत् विप्रा बहुधा वदंति’ यानी उपासना के सभी मार्ग अंततः चरम सत्य तक ही पहुँचाते हैं।

    आयरलैंड में जन्मी मार्गरेट नोबल नामक युवती ने स्वामी विवेकानंद के उपदेशों से प्रभावित होकर अपना सर्वस्व भारत व भारतीय संस्कृति की सेवा के लिए समर्पित कर दिया था।

    स्वामी विवेकानंद से दीक्षा लेकर वे भगिनी निवेदिता बन गईं। एक दिन उन्हें वेदों व गीता के महत्त्व पर प्रवचन देते देख एक अंग्रेज ने कहा, ‘अपने ईसाई धर्म की जगह तुम भारतीय धर्म में क्या विशेषता देखती हो?’

    भगिनी निवेदिता ने विनम्रता से कहा, ‘मुझे भारतीय धर्मशास्त्रों के इस सार ने प्रभावित किया है कि सत्यरूपी धर्म का साक्षात्कार किसी भी उपासना पद्धति के माध्यम से किया जा सकता है।

    आत्म साक्षात्कार किसी भी धर्म, पंथ या जाति के व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। निवेदिता ने लिखा है, ‘सत्य का साक्षात्कार केवल हमारे मार्ग से ही होगा, ऐसा समझना अहंकार होगा जिस प्रकार नदियाँ विभिन्न स्थानों से निकलते हुए सागर में पहुँचती हैं,

    उसी प्रकार विभिन्न पूजा-उपासना पद्धतियाँ भी ईश्वर और सत्य तक ले जाती हैं। इसलिए किसी व्यक्ति को असहिष्णु होकर अपने ही धार्मिक मार्ग पर चलने का दुराग्रह नहीं करना चाहिए। यह दुराग्रह ही आत्मा-परमात्मा का रहस्य समझने में बाधक बनता है।

    भगिनी निवेदिता हमेशा कहा करती थीं, ‘सेवा परोपकार को सर्वोपरि धर्म मानने वाला भारत का सनातन धर्म ही विश्व को शांति व मानवता का संदेश देने में सक्षम है।

    साक्षात् माँ स्वरूपा Story in Hindi

    स्वामी कृष्ण परमहंस का मूल मंत्र था, ‘प्रत्येक प्राणी में आत्मा स्वरूप भगवान् विद्यमान हैं। यदि किसी प्राणी की सेवा करोगे , तो समझ लो कि साक्षात् परमात्मा की सेवा का पुण्य स्वतः प्राप्त हो रहा है। यदि किसी को दुःख पहुँचाओगे, तो ईश्वर के प्रकोप को सहन करना ही पड़ेगा।

    स्वामी रामकृष्ण प्रत्येक पुरुष में भगवान् के दर्शन करते थे और प्रत्येक महिला में माँ काली की अनुभूति। उन दिनों बाल विवाह की प्रथा थी। स्वामी रामकृष्ण का विवाह भी 1860 में छह वर्षीया शारदा देवी के साथकर दिया गया।

    कुछ वर्ष बाद उन्हें उनकी ससुराल भेजा गया। पत्नी को देखते ही परमहंस को जगदंबा के दर्शन हुए। उनके मुख से सहज ही निकला, ‘हे सर्वशक्तिमान त्रिपुर सुंदरी,

    तुम-साक्षात् शारदा हो, सरस्वती हो। गरीबों और असहायों की सेवा-कल्याण का साधन बनकर अपना तथा मेरा जीवन सफल बनाने का संकल्प लो।’

    शारदा देवी पति के शब्द सुनकर अभिभूत हो उठीं और उन्होंने उसी दिन अपना सर्वस्व सेवा-परोपकार के लिए समर्पित करने का संकल्प ले लिया।

    स्वामी अचलानंदजी ने श्री शारदा देवी सुप्रभातम् में लिखा है, ‘माँ शारदा ने जीवों के दुःख से दुःखित होकर अपना जीवन प्राणियों की सेवा-सहायता में लगाया। असंख्य भक्त उनका दर्शन कर जीवन में अनूठी शांति प्राप्त करते हैं।’

    शारदा माँ ने अपने अंतिम प्रवचन में कहा था, ‘यदि स्वयं शांति चाहते हो, तो दूसरों को सुख-शांति दो। न किसी का दोष देखो और न ही किसी की निंदा करो।’ रामकृष्ण परमहंस की तरह वे भी हर क्षण काली माँ के ध्यान में मग्न रहती थीं।

    अहंकार से दूर Story in Hindi

    सभी धर्मों के आचार्य और दार्शनिक ‘मैं’ अर्थात् अहंकार को ईश्वर साक्षात्कार में सबसे बड़ी बाधा मानते रहे हैं। महात्मा बुद्ध ने भी कहा है कि अहंकार के कारण मानव को अनेक संकटों से जूझना पड़ता है।

    आचार्य रजनीश (ओशो) भक्तों को एक कहानी सुनाया करते थे-एक साधु किसी गाँव से गुजर रहा था। उस गाँव में उसका परिचित साधु रहता था।

    उसने सोचा आधी रात हो रही है, क्यों न मित्र साधु के पास रहकर रात काटी जाए। साधु के आश्रमनुमा कमरे की खिड़की से प्रकाश आता देखकर उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, ‘कौन है?’ उसने यह सोचकर कि मित्र साधु आवाज से पहचान ही लेगा, कहा, ‘मैं हूँ।

    इसके बाद भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार दरवाजा खटखटाया, पर कोई जवाब नहीं मिला। अंत में उसका धैर्य जवाब दे गया और उसने पूरा जोर लगाकर कहा, ‘मेरे लिए तुम दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे हो? चुप क्यों हो?’

    भीतर से आवाज आई, ‘तुम कौन नासमझ हो, जो खुद को ‘मैं’ कहते हो। ‘मैं’ कहने का अधिकार सिवाय परमात्मा के किसी और को नहीं है। प्रभु के द्वार पर ‘मैं’ का ही ताला है। जो उसे तोड़ देता है, वह पाता है कि प्रभु के द्वार उसके लिए सदा से ही खुले थे।’

    संत कबीरदास तो अपनी साखी में स्पष्ट कहते हैं जब मैं था, तब हरि नहीं, अब हरि हैं, मैं नाहिं । प्रेम गली अति सांकरि, तामें दो न समाहिं॥

    वास्तव में अहंकार से ग्रस्त व्यक्ति का विवेक नष्ट होते देर नहीं लगती। वह स्वयं अपने हाथों विनाश के लिए तत्पर हो उठता है।

    सत्कर्म की प्रेरणा Story in Hindi

    महामना पंडित मदनमोहन मालवीयजी श्रीमद्भागवत के गहन अध्येता थे। एक बार संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी मालवीयजी के दर्शन करने काशी गए। उन्होंने उनसे प्रश्न किया, ‘आपको श्रीमद्भागवत के किस श्लोक ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया?’ महामना ने कहा

    ‘मनसैतानि भूतानि प्रणमेद्रहु मानयन। ईयवरो जीवकलया प्रविष्टो भगवानिति॥

    अर्थात् सभी प्राणियों में भगवान् ने ही अंशभूत जीव के रूप में प्रवेश किया है, यह मानकर सभी प्राणियों को सम्मान देते हुए प्रणाम करना चाहिए।

    मैं इस श्लोक को भारतीय संस्कृति का सार मानता हूँ। मालवीयजी न सिर्फ शास्त्रों का अध्ययन करते थे, बल्कि स्वयं उनके अनुसार अपना जीवन भी जीते थे।

    वे कहा करते थे, ‘जो सत्य पर अटल रहता है, इंद्रियों पर नियंत्रण कर संयमित जीवन जीने का अभ्यासी है, उसे कोई भी लोभ, लालच या संकट छू नहीं सकता।

    महामना एक बार अत्यंत अस्वस्थ होते हुए भी किसी कार्य में व्यस्त थे। कुछ शिक्षाविद् उनके स्वास्थ्य की जानकारी लेने पहुंचे। उन्होंने उन्हें कार्य करते देखा, तो पूछा, ‘आपको ऐसी परिस्थिति में भी कार्य करने की प्रेरणा कहाँ से मिलती है?

    मालवीयजी ने कहा, ‘जब मैं पतझड़ में पत्रहीन पीपल वृक्ष को वसंत के आगमन पर नवीन सुकुमार पत्तों से हरा-भरा होकर लहलहाता देखता हूँ,

    तो मुझमें आशा का संचार होता है। यही मुझे उत्साहित करता है। जो लोग छोटी-छोटी बाधाओं से निराश होकर बैठ जाते है, उन्हें जीवन में कभी सफलता नहीं मिलती।’ शिक्षाविद् इस जवाब से संतुष्ट होकर उनके चरणों में झुक गए।

    मन पवित्र करो Story in Hindi

    छत्रपति शिवाजी के गुरु समर्थ रामदास मन की शुद्धि पर बहुत जोर दिया करते थे। वे कहा करते थे, जिसका मन कलुषित होता है, वह अपने परिवारजनों के साथ भी आनंदपूर्वक नहीं रह सकता।

    दूसरी ओर जिसका मन निश्छल होता है, वह सहज ही सभी का विश्वास प्राप्त कर लेता है। समर्थ रामदास ने मन की पवित्रता और निश्छलता की प्रेरणा देने वाले 205 श्लोकों की मराठी में रचना की।

    उनके शिष्यों ने मनाचे श्लोक (मन के श्लोक) नामक पुस्तक में उनका संकलन किया। समर्थ स्वामी ने अपने शिष्यों से कहा, ‘बिना कुछ दिए किसी गृहस्थ का भोजन ग्रहण करना भी उचित नहीं है।

    इसलिए भिक्षा माँगते ही जब कोई घर से बाहर निकल आए, तो पहले उसे मन को पवित्र बनाने की प्रेरणा देने वाला श्लोक सुनाओ।’ स्वामीजी आगे कहते हैं

    ‘मना वासना दुष्ट कामा न ये रे। मना सर्वथा पाप बुद्धि न की रे॥

    यानी रे मन, बुरी वासना नहीं रखनी चाहिए। पाप मन में कदापि नहीं आने देना चाहिए। एक अन्य श्लोक में स्वामीजी कहते हैं, ‘हे मन, पाप का नहीं, सच्चाई का इरादा रख।

    बुरे विचारों, विकार, विषय को अपने पास भी फटकने मत देना।’ उनका मत था कि जो जैसा कर्म करता है, उसे वैसा ही भोगना पड़ता है। अतः वह ऐसे सत्कर्म करने की प्रेरणा देते थे कि लोग हमेशा याद करें।

    वे कहते थे, मन! तुम चंदन की तरह घिसकर दूसरे को अपनी सुगंध से आलोकित करते रहो। महाराष्ट्र में आज भी रामदासी संप्रदाय के संत मन पवित्र रखने का उपदेश देते घूमते हैं।

    आसक्ति से पतन Story in Hindi

    जैन संत आचार्य तुलसी कहते थे कि किसी भी तरह की आसक्ति या महत्त्वाकांक्षा से सर्वथा मुक्त रहने में ही कल्याण है। वे भरत की कथा सुनाते हुए चेतावनी दिया करते थे कि हिरण की आसक्ति के कारण ही उन्हें हिरण बनना पड़ा था। एक दिन उन्होंने एक कथा सुनाई

    एक महात्मा की घोर तपस्या से उनके आश्रम में सिंह और बकरी, सर्प और मेढक तक वैर भाव भुलाकर प्रेम से साथ रहने लगे। इंद्र को लगा कि यदि महात्मा की तपस्या चलती रही, तो उनका आसन अधिक दिन तक नहीं टिक पाएगा।

    उन्होंने महात्मा को आसक्ति से डिगाने का उपाय सोचा। वेश बदलकर आश्रम पहुँच गए और महात्मा से कहा, ‘महाराज, मैं कहीं बाहर जा रहा हूँ। यह तलवार आपके पास छोड़े जा रहा हूँ। यदि इसका ध्यान रख सकें, तो आभारी रहूँगा। संत ने स्वीकृति दे दी।

    महीनों बीतने के बाद भी इंद्र तलवार लेने आश्रम नहीं आए। महात्माजी ने सोचा कि तलवार किसी की धरोहर है, इसलिए उसे अपने पास रखने लगे।

    जहाँ जाते तलवार साथ ले जाते, ताकि कोई उसे चुरा न ले। भगवान् में हर समय लीन रहनेवाला मन अकसर तलवार की ओर चला जाता। इस तरह संत की साधना का क्रम भंग होने लगा।

    साधना में विघ्न पड़ने से आश्रम का सात्त्विक वातावरण दूषित होने लगा और जो जीव हिंसा त्यागकर मैत्री के कारण साथ-साथ रहते थे, वे फिर एक-दूसरे का भक्षण करने लगे।

    आचार्य तुलसी यह कहानी सुनाकर कहते थे, ‘किसी भी वस्तु के प्रति आसक्ति जीवनभर की तपस्या को पलभर में नष्ट कर देती है, इसलिए सदैव इससे बचना चाहिए।

    क्षणभंगुर जीवन Story in Hindi

    सभी धर्मों में मानव जीवन को क्षणभंगुर बताते हुए हर क्षण सत्कर्म व अपने कर्तव्यपालन में लगे रहने की प्रेरणा दी गई है। कहा गया है कि भगवान् व मृत्यु को हर क्षण याद रखना चाहिए ।

    नारायण स्वामीजी ने कहा है, ‘दो बातों को भूल मत जो चाहता कल्याण। नारायण इक मौत को दूजे श्रीभगवान्।’

    उर्दू के कवि जौक तो दुनिया को सराय बताते हुए लिखते हैं, ‘दुनिया है सराय इसमें बैठा तू मुसाफिर है, और जानता है यहाँ से जाना तुझे आखिर है।’

    सारी चेतावनियों के बावजूद मानव न भगवान् को याद रखता है, न मौत को। वह किसी भी तरह धन-संपत्ति अर्जित करने, ऐशो- आराम की जिंदगी बिताने के सपनों में घिरा रहता है।

    ‘ राम नाम सत्य है’ उसके मुँह से कुछ क्षणों के लिए तभी निकलता है, जब वह किसी के शव के साथ श्मशान घाट तक जाता है। चिंता को आग देते वक्त तक उसे आभास होता है कि मृत्यु बिना बाट देखे कभी भी आकर दबोच सकती है।

    वह वहाँ बैठा वैराग्य भाव से संसार के झूठे होने की बात करता है, पर वहाँ से लौटते ही सुखों की खोज में लग जाता है। संत-महात्मा समय-समय पर पल-पल का सदुपयोग करने की प्रेरणा देते हैं।

    धन व सांसारिक सुखों के अहंकार से ग्रसित व्यक्ति किसी की बात पर ध्यान नहीं देता। कुछ कहते हैं, ‘भगवान् को वृद्धावस्था में याद करेंगे। जवानी में यदि भोगों का आनंद नहीं लिया, तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा।

    वह यह नहीं जानते कि मृत्यु बुढ़ापे की प्रतीक्षा नहीं करती। संत कबीर इसलिए कहते हैं, ‘कबीर नौबत अपनी दिन दस लेहु बजाय। यह पुर पट्टन, यह गली बहुरि न देखन आय।

    बेवकूफ कुत्ते new latest Hindi story

    एक गड़रिया था। उसके पास बहुत सारी भेड़ें थीं। उसने भेड़ों की रक्षा के लिए दो खूंखार कुत्ते पाल रखे थे। वह कुत्ते सावधानीपूर्वक भेड़ों की रखवाली करते थे।

    एक रात, एक भेड़िया भेड़ों के बाड़े के चारों तरफ चक्कर लगा रहा था। कुत्तों ने उसे देख लिया और उस पर जोर-जोर से भौंकने लगे। यह देखकर भेड़िए ने कुत्तों को भेड़ों से दूर करने की एक योजना बनाई।

    योजना के मुताबिक वह कुत्तों से दोस्ती करने की कोशिश करने लगा। भेड़िया बोला, “प्रिय मित्र, क्यों तुम इतनी कठिन जिंदगी व्यतीत कर रहे हो? बाड़े के बाहर आओ और मेरी तरह आजादी का आनंद लो।”

    कुत्तों को भेड़िए की बात बड़ी पसंद आई और वे बाड़े से बाहर आ गए। अपनी योजना को सफल होते देख भेड़िया अत्यधिक खुश हुआ। वह उन्हें अपनी गुफा में लेकर गया।

    वहाँ पर अन्य भेड़ियों ने उन कुत्तों पर हमला करके उन्हें मार दिया। उसके बाद सभी भेड़िए भेड़ों के खाने के लिए बाड़े में घुस गए। इस प्रकार, उन बेवकूफ कुत्तों ने अपनी जिंदगी तो गँवाई ही, अपने मालिक का भी भारी नुक्सान करवाया।

    नीता की गुड़िया awesome latest Hindi story

    नीता एक एक प्यारी-सी पर लापरवाह लड़की थी। अपनी लापरवाही के चलते वह अपनी वस्तुएँ खो देती थी। नीता के पिताजी अक्सर उससे कहते, “नीता, तुम्हें लापरवाह नहीं होना चाहिए।

    इतनी लापरवाही अच्छी नहीं होती। तुम्हें वस्तुओं का मोल समझना चाहिए और उन्हें सावधानीपूर्वक संभालकर रखना चाहिए।” एक दिन नीता के पिताजी उसके लिए सुंदर-सी गुड़िया खरीदकर लाए।

    उसे अपनी गुड़िया से बहुत अधिक प्यार था। वह हमेशा उस गुड़िया को अपने पास रखती थी। कुछ दिनों बाद, उसने गुड़िया को एक अलमारी में रख दिया।

    एक दिन नीता के पिता बोले, “नीता बेटा आओ, मैं तुम्हें बाहर घुमाने ले जाता हूँ।” वह दौड़कर अपने कमरे में गई और कुछ देर बाद अपनी गुड़िया के साथ लौट आई।

    उसके पिताजी बोले, “तुमने गुड़िया को साथ में क्यों ले लिया?” वह बोली, “यदि मैंने अपनी गुड़िया यहाँ छोड़ी तो यह खो जाएगी। लेकिन अगर मैं इसे सभी जगह साथ लेकर जाऊँगी तो मैं इसे कभी नहीं खोऊँगी।” नीता की नासमझी भरी बातें सुनकर उसके पापा हँस पड़े।

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    लालची व्यक्ति amazing latest Hindi story

    एक बार एक धनी किंतु लालची व्यक्ति बीमार पड़ गया। बहुत से वैद्यों ने उसका इलाज किया लेकिन कोई भी उसकी बीमारी को ठीक नहीं कर सका।

    तब उस बीमार व्यक्ति ने भगवान से प्रार्थना की, “हे भगवान! मुझे बचा लो।    यदि मैं ठीक हो गया तो सौ बैलों की बलि चढ़ाऊँगा।” भगवान ने उसकी प्रार्थना सुन ली और उसे स्वस्थ कर दिया।

    स्वस्थ होने के बाद वह पैसा खर्च नहीं करना चाहता था।    इसलिए वह सौ बैलों की छोटी-छोटी मूर्तियाँ बनवा के मंदिर ले गया और भगवान को अर्पित करते हुए बोला,”हे भगवान! धन्यवाद स्वरूप मेरा ये उपहार स्वीकार करें।”

    अब भगवान को उस पर बड़ा गुस्सा आया कि इस व्यक्ति ने जिंदा बैल चढ़ाने का वादा किया था और अब ये अपना वादा तोड़ रहा है।    इसलिए भगवान ने उसको सजा देने का निर्णय करते हुए कहा,

    “समुद्र तट पर जाओ, वहाँ पर तुम्हें सोने की मोहरें मिलेंगी।” लालची व्यक्ति ने तुरंत वहाँ जाकर मोहरें प्राप्त कर लीं। लेकिन वहाँ कुछ समुद्री डाकू भी थे।    वे उस लालची व्यक्ति को बंदी बनाकर ले गए और उसे सौ स्वर्ण मुद्राओं के बदले सेवक के रूप में बेच दिया।

    बिल्ली की आदत animal latest Hindi story

    एक दिन एक बिल्ली को एक युवक से प्रेम हो गया। वह उससे शादी करना चाहती थी। लेकिन एक बिल्ली होने के कारण वह एक मानव से शादी नहीं कर सकती थी।

    इसलिए उसने भगवान से प्रार्थना की, “भगवान, मुझे एक लड़की बना दो जिससे मैं उस सुंदर युवक से शादी कर सकूँ।” भगवान ने उसकी प्रार्थना स्वीकार करते हुए उसे एक सुंदर लड़की में परिवर्तित कर दिया।

    लड़की ने युवक से प्रेम निवेदन करते हुए विवाह का प्रस्ताव रखा। जल्दी ही दोनों ने शादी कर ली। अगले दिन वे दोनों अपने कमरे में बैठे हुए थे।

    यह देखकर भगवान ने सोचा, ‘जरा देखू कि लड़की में परिवर्तित होने के बाद बिल्ली ने अपनी आदतें बदली हैं या नहीं।’ यह सोचकर भगवान ने उनके कमरे में एक चूहा भेज दिया।

    लड़की तुरंत उसे पकड़ने दौड़ी। यह देखकर भगवान ने उसे लड़की से पुन: बिल्ली बना दिया और सोचने लगे, ‘मैं तो भूल ही गया था कि किसी का शरीर और कपड़े बदलने से उसकी आदतें कभी बदलतीं।’

    बेवकूफ शेर Lion latest Hindi story

    एक लकड़हारा अपनी बेटी गीता के साथ जंगल के पास ही एक छोटी-सी झोंपड़ी में रहता था। एक दिन पास के जंगल में रहने वाले एक शेर ने गीता को देखा।

    वह उसकी सुंदरता पर मोहित हो गया और उसे अपनी पत्नी बनाने की सोचने लगा। यह विचार कर वह लकड़हारे की झोंपड़ी पर गया और गर्जन करते हुए बोला,

    “ओ लकड़हारे, मैं तेरी बेटी के साथ शादी करना चाहता हूँ।    यदि तूने उसकी शादी मुझसे नहीं की, तो मैं तुम दोनों को मारकर खा जाऊँगा।”

    शेर की बातें सुनकर लकड़हारे ने एक योजना बनाई और बोला, “मैं अभी अपनी बेटी से पूछकर आता हूँ।”    वह झोंपड़ी के अन्दर गया और कुछ समय बाद लौट आया।

    बाहर आकर वह शेर से बोला, “गीता तुम्हारे नुकीले दाँत और पंजों से डरती है। उसने कहा है, यदि तुम उन्हें उखड़वा लोगे तो वह तुमसे शादी कर लेगी।”

    शेर ने अपने दाँत और पंजों को निकलवा दिया। अब वह पंजे और दाँतों के बिना पहले की तरह खतरनाक नहीं रह गया था।    अब लकड़हारे को शेर से कोई डर नहीं था।

    उसने शेर पर डंडे से जोर-जोर से प्रहार करना शुरू कर दिया। शेर किसी तरह अपनी जान बचाकर वहाँ से भाग खड़ा हुआ।

     

    धूर्त भेड़िया in Hindi latest story

    एक गड़रिया रोज अपनी भेड़ों को दरगाह में चराने के लिए ले जाता था। एक भेड़िए की नजर उसकी भेड़ों पर थी। वह उन्हें खाना चाहता था। इसलिए उसने एक योजना बनाई।

    वह गड़रिए के पास गया और बड़ी ही मधुर आवाज में उससे बात करने लगा। गड़रिया जानता था कि भेड़िया बहुत ही धूर्त है। इसलिए वह और भी अधिक सचेत हो गया।

    लेकिन धूर्त भेड़िए ने धीरे-धीरे उसे विश्वास में ले लिया और जल्दी ही वे दोनों दोस्त बन गए। धीरे-धीरे गड़रिए को भेड़िए पर पूरा विश्वास हो गया। एक दिन गड़रिए को दूसरे गाँव जाना था।

    इसलिए वह भेड़ों को अपने दोस्त भेड़िए की निगरानी में छोड़कर चला गया। अब तो जैसे भेड़िए को मुँह माँगी मुराद मिल गई। वह कब से इसी समय का इंतजार कर रहा था।

    जैसे ही गड़रिया वहाँ से गया, भेड़िए ने भेड़ों पर झपट्टा मारा और उन्हें मारकर खा गया। जब गड़रिया लौटकर आया तो उसने देखा कि दुष्ट भेड़िया उसकी अधिकतर भेड़ों को मारकर खा गया था। अब वह भेड़िए पर विश्वास करने पर पछता रहा था।

    बकरी की सलाह Unique latest Hindi story for kids

    एक व्यक्ति के पास एक गधा और एक बकरी थी। गधं का उपयोग बह सामान ढोने के लिए करता था। गधा पूरे दिन कठिन परिश्रम करता. इसलिए उसका मालिक गधे को बकरी से अधिक भोजन देता था।

    बकरी गधे से ईर्ष्या करती थी। वह चाहती थी कि किसी तरह से मालिक का लगाव गधे से कम हो जाए। उसने गधे को एक गलत सलाह देते हुए कहा, “तुम दिन मेहनत करते हो, जरा भी आराम नहीं करते हो।

    तुम बीमार होने का ढोंग करके बेहोश होकर गिर जाना। इस तरह तुम्हें कुछ दिनों के लिए आराम मिल जाएगा।” बकरी की सलाह मान गधे ने वैसा ही किया गधे की हालत देखकर उसके मालिक ने डॉक्टर को बुलाया।

    डॉक्टर वाला, “गधा को स्वस्थ करने के लिए बकरी के फेफड़ों का सूप देना आवश्यक है।” उस व्यक्ति ने बकरी को मारकर उसके फेफड़ों का सूप बनाया और वह सूप गधे को पिलाया। गधा फौरन उठ खड़ा हुआ।

    इस प्रकार अपनी दुष्ट प्रवृत्ति के कारण बकरी बेवजह ही अकाल मृत्यु का शिकार बनी। इसलिए कहा गया है कि जैसी करनी वैसी भरनी।

    भालू की दगाबाजी for children latest Hindi story

    एक दिन एक भेड़िया शेर को अपशब्द कहकर वहाँ से भाग गया। शेर को बहुत गुस्सा आया। वह चिड़िया को मारने के लिए उसका पीछा करने लगा।

    जब भेड़िया भाग रहा था, उसे रास्ते में एक परिचित भालू दिखाई दिया।    वह बोला, “दोस्त! मुझे बचा लो। शेर मेरा पीछा कर रहा है। वह मुझे मारना चाहता है।

    क्या तुम मुझे कहीं छुपा सकते हो?”   भालू बोला,”मैं! अवश्य मेरे दोस्त। मेरी गुफा में आ जाओ।” भेड़िया उसकी गुफा में जाकर छुप गया। कुछ समय बाद शेर ने वहाँ आकर भालू से पूछा,

    “क्या तुमने यहाँ से किसी भेड़िए को जाते हुए देखा?”    भालू बोला, “नहीं महाराज, मैंने नहीं देखा।” यह कहते हुए भालू ने शेर को अपनी गुफा के अंदर देखने का इशारा किया।

    लेकिन शेर उसका इशारा समझ नहीं पाया और वहाँ से चला गया।    उसके बाद भेड़िया गुफा से बाहर आया। भालू बोला,”मेरे विचार से तुम्हें मुझे धन्यवाद बोलना चाहिए।”

    “धन्यवाद! किस बात के लिए?”    भेड़िया गुस्से से बोला, “शेर से झूठ बोलते हुए मेरी तरफ इशारा करने के लिए!” यह कहकर भेड़िया वहाँ से चला गया।

     

    वाणी की महत्ता with God latest Hindi story

    ईश्वर ने पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्यों की रचना की। उन्होंने विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तुओं को विभिन्न प्रकार की शक्तियाँ दीं। कुछ जानवरों को तेज दौड़ने की, कुछ को उड़ने की और कुछ को तैरने की।

    ईश्वर की सभी रचनाओं में मानव सबसे श्रेष्ठ रचना है। फिर भी मनुष्य ही सभी जीवों की तुलना में सबसे ज्यादा संतुष्ट है। एक दिन एक मानव ने ईश्वर से पूछा,

    “हे भगवान! आपने अन्य दूसरे जीव-जंतुओं को कुछ-न-कुछ विशिष्टता दी है। लेकिन मुझे कोई भी विशेषता क्यों नहीं दी?” मानव की बात सुनकर भगवान मुस्कराते हुए बोले, “प्रिय पुत्र, मैंने तुम्हें सबसे कीमती शक्ति दी है।

    ये शक्ति है बोलने की। तुम अपने भावों एवं ज्ञान को वाणी के माध्यम से व्यक्त कर सकने में सक्षम हो। अन्य किसी जीव के पास यह शक्ति नहीं है।

    ईश्वर की बात सुनकर मानव को अहसास हुआ कि भगवान ने उसे बोलने की महान शक्ति दी है, जो कि अन्य जीवों को नहीं मिली। वह समझ गया कि बेवजह अपने मन में असंतुष्टि के भाव नहीं पालने चाहिए।

    ऊँट को यूँ मिला सबक हिंदी में latest कहानी

    किसी जंगल में एक ऊँट रहता था। उसकी एक बड़ी बुरी आदत थी। वह अपनी टीका-टिप्पणी से दूसरों को छेड़ा करता था।    एक बार उसने गेंडे को छेड़ते हुए कहा,

    “अरे! तुम्हारा तो एक ही सींग है और वो भी तुम्हारी नाक के ऊपर, जबकि दूसरे जानवरों के तो सिर पर दो सींग होते हैं।”    वह हाथी को छेड़ते हुए अक्सर कहता,

    “अरे! तुम्हारी तो दो-दो पूँछ हैं, एक आगे और एक पीछे।” इसी प्रकार वह सभी जानवरों पर टिप्पणी करता रहता, जिससे सभी जानवर अपमानित महसूस करते।

    एक दिन बंदर उस ऊँट को देखकर बोला, “और सुनाओ श्रीमान् ऊँट! तुम अपनी पीठ का कूबड़ लिए कहाँ फिर रहे हो? और तुम अपनी इतनी लंबी गर्दन से क्या करते हो?”

    बंदर के शब्द सुनकर ऊँट को बड़ा बुरा लगा। उसे समझ में आ गया कि जिस तरह बंदर की बात का उसे बुरा लगा है उसी प्रकार उसकी बातें सुनकर अन्य जानवरों को भी बुरा लगता होगा। यह सोचकर उसने उसी दिन से दूसरों का मजाक उड़ाना छोड़ दिया।

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