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Top 71 Best Latest Story in Hindi

    Top 71 Best Latest Story in Hindi

    Best Latest Story in Hindi हिंदी में

    सत्य, शील और विद्या Story in Hindi

    एक बार आचार्य चाणक्य से किसी ने प्रश्न किया, ‘मानव को स्वर्ग प्राप्ति के लिए क्या-क्या उपाय करने चाहिए?’ चाणक्य ने संक्षेप में उत्तर दिया, ‘जिसकी पत्नी और पुत्र आज्ञाकारी हों,

    सद्गुणी हों तथा अपनी उपलब्ध संपत्ति पर संतोष करते हों, वह स्वर्ग में नहीं, तो और कहाँ वास करता है! आचार्य चाणक्य सत्य, शील और विद्या को लोक-परलोक के कल्याण का साधन बताते हुए नीति वाक्य में लिखते हैं,

    ‘यदि कोई सत्यरूपी तपस्या से समृद्ध है, तो उसे अन्य तपस्या की क्या आवश्यकता है? यदि मन पवित्र और निश्छल है, तो तीर्थाटन करने की क्या आवश्यकता है? यदि कोई उत्तम विद्या से संपन्न है, तो उसे अन्य धन की क्या आवश्यकता है?’

    वे कहते हैं, ‘विद्या, तप, दान, चरित्र एवं धर्म (कर्तव्य) से विहीन व्यक्ति पृथ्वी पर भार है। संसार में विद्यावान की सर्वत्र पूजा होती है। विद्यया लभते सर्व विद्या सर्वत्र पूज्यते। यानी विद्यारूपी धन से सबकुछ प्राप्त होता है।

    आचार्य सदाचार व शुद्ध भावों का महत्त्व बताते हुए लिखते हैं, ‘भावना से ही शील का निर्माण होता है। शुद्ध भावों से युक्त मनुष्य घर बैठे ही ईश्वर को प्राप्त कर सकता है।

    ईश्वर का निवास न तो प्रतिमा में होता है और न मंदिरों में। भाव की प्रधानता के कारण ही पत्थर, मिट्टी और लकड़ी से बनी प्रतिमाएँ भी देवत्व को प्राप्त करती हैं, अतः भाव की शुद्धता जरूरी है।

    आचार्य चाणक्य का यह भी कहना है कि यदि मुक्ति की इच्छा रखते हो, तो विषय वासनारूपी विद्या को त्याग दो। सहनशीलता, सरलता, दया, पवित्रता और सच्चाई का अमृतपान करो।

    प्राणी में भगवान् Story in Hindi

    अफ्रीका के एक गाँव में जन्मे आगस्टाइन जन्मजात प्रतिभाशाली थे। उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वे अमेरिका की मिलान यूनिवर्सिटी में शिक्षक नियुक्त हुए। वे ‘खाओ-पीओ मौज करो’ के सिद्धांत में विश्वास रखते थे और असंयम व स्वेच्छाचारी जीवन बिताते थे।

    एक दिन वे ईसाई प्रचारक पादरी एंबोसे के सत्संग में गए। मनुष्य को असत्य, हिंसा, यौनाचार आदि का दंड भोगना ही पड़ता है-ईसा के इस वाक्य ने उनके मन में हलचल मचा दी।

    वे शिक्षक पद से त्यागपत्र देकर अफ्रीका लौट आए और अपना तमाम धन गरीबों-असहायों के कल्याण कार्य के लिए अर्पित कर सात्विक और संयमी जीवन जीने लगे। वे पापी से संत बन गए।

    आगस्टाइन ने ‘द सिटी ऑफ गॉड’ पुस्तक लिखी। उन्होंने लिखा, ‘ईश्वर प्रकाश एवं दिव्य आनंद है। जो शुभ है, उससे वह प्रेम करता है। जब आत्मा अपने आपको ईश्वर को समर्पित कर देती है, तब स्वयं यज्ञ बन जाती है। प्रभु को समर्पित होने वाला भौतिक आकांक्षाओं से मुक्त होकर प्रत्येक प्राणी में भगवान् के दर्शन कर उससे प्रेम करने लगता है।

    संत आगस्टाइन ने ईसा के उपदेश का पालन करते हुए अपने जीवन में किए गए पाप कर्मों और अनाचार को सार्वजनिक रूप से बेपरदा कर पश्चात्ताप किया।

    उन्होंने भगवान् से प्रार्थना की, ‘हे प्रभो, अहंकार और कुसंग में फँसकर किए गए दुष्कर्मों की क्षमा माँगते हुए आपकी शरण में हूँ। मैं घोरतम पाप करता रहा। धन-संपत्ति को अपना मानकर दुरुपयोग करता रहा। आपकी असीम कृपा से ही घृणित जीवन से विरत हो पाया हूँ।’

    आगे चलकर आगस्टाइन की गणना प्रमुख ईसाई संतों में हुई।

    सत्य और सुख Story in Hindi

    खलील जिब्रान से किसी ने पूछा, ‘आज दानवता, हिंसा और अनैतिकता का बोलबाला क्यों हो रहा है?

    जिब्रान ने उसे बताया, ‘ईश्वर ने जब आदमी को दुनिया में भेजा, तो उसके दोनों हाथों में एक-एक घड़ा थमा दिया था। परमात्मा ने उससे कहा, एक घड़े में सत्य भरा है, जिसका पालन कल्याणकारी होगा।

    दूसरे घड़े में सुख है, जो विषय-वासना की चाह पैदा करता है। तुम जगत् में जा रहे हो, जहाँ शैतान (अज्ञान) व माया (अविद्या) का राज्य है। प्राण देकर भी सत्य की रक्षा करना, उसे ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रखना।

    सुख की कामना सीमित रखना। यह मत भूलना कि तुम्हारे दाहिने हाथ में सत्य का घड़ा है और बाएँ हाथ में सुख का।’इनसान दोनों घड़े लेकर चला। रास्ते में उसे थकावट महसूस हुई।

    वह पेड़ की छाया में बैठा, तो नींद आ गई। शैतान ने चुपचाप परमात्मा की हिदायत सुन ली थी, वह भी इनसान का पीछा कर रहा था। इनसान को सोता देख उसने चुपचाप दाएँ हाथ का घड़ा बाएँ हाथ में और बाएँ हाथ का घड़ा दाएँ हाथ में रख दिया और गायब हो गया।

    इनसान भ्रम में पड़कर सत्य को व्यर्थ समझकर बेरहमी से लुटाने लगा । देखते-ही-देखते सत्य-शील का खजाना पूरी तरह खाली हो गया। उसके पास केवल सुख-सुविधाएँ और कामनाएँ ही रह गईं। इसी कारण संसार में दानवता, हिंसा और कूररता का बोलबाला दिखाई देता है।’

    खलील जिब्रान ने बताया, ‘जो व्यक्ति सत्य-शील का त्याग कर देता है, उससे इनसानियत स्वतः दूर हो जाती है। वह भोग-विलास व अन्य दुर्व्यसनों में फँसकर अपना और दूसरों का जीवन कष्टमय बनाने में लगा रहता है।

    मुक्ति का उपाय Story in Hindi

    एक सज्जन स्वामी रामकृष्ण परमहंस के पास सत्संग के लिए पहुँचे। बातचीत के दौरान उन्होंने प्रश्न किया, ‘महाराज, मुक्ति कब होगी?’ परमहंसजी ने कहा, ‘जब ‘मैं’ चला जाएगा, तब स्वतः मुक्ति की अनुभूति करने लगोगे।

    स्वामीजी ने बताया, ‘मैं दो तरह का होता है-एक पक्का मैं और दूसरा कच्चा मैं। जो कुछ मैं देखता, सुनता या महसूस करता हूँ, उसमें कुछ भी मेरा नहीं,

    यहाँ तक कि शरीर भी मेरा नहीं। मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, यह पक्का मैं है। यह मेरा मकान है, यह मेरा पुत्र है, यह मेरी पत्नी है, यह सब सोचना कच्चा मैं है।

    स्वामीजी कहते हैं, जिस दिन यह दृढ़ विश्वास हो जाएगा कि ईश्वर ही सबकुछ कर रहे हैं, वह यंत्री है और मैं यंत्र हूँ, तो समझो, यह जीवन मुक्त हो गया।

    जिस प्रकार धनिकों के घर की सेविका मालिकों के बच्चों को अपने ही बच्चों की तरह पालती-पोसती है, पर मन-ही – मन जानती है कि उन पर उसका कोई अधिकार नहीं है,

    उसी प्रकार हम सबको बच्चों की तरह प्रेम से पालन-पोषण करते हुए भी विश्वास रखना चाहिए कि इन पर हमारा कोई अधिकार नहीं है। हमें कई बार भव्य धर्मशाला में कुछ दिन ठहरने का अवसर मिलता है,

    किंतु उसके प्रति यह भाव नहीं आता कि यह मेरी है, उसी प्रकार जगत् को धर्मशाला मानकर यह सोचना चाहिए कि हम कुछ समय के लिए ही इसमें रहने आए हैं।

    यहाँ व्यर्थ की मोह, ममता व लगाव रखने से कोई लाभ नहीं होगा। सदाचार का पालन करते हुए भगवान् की भक्ति और असहायों की सेवा करते रहने में ही कल्याण है। स्वामीजी का प्रवचन सुनकर उस व्यक्ति की जिज्ञासाओं का समाधान हो गया।

    माँ काली का स्वरूप Story in Hindi

    सितंबर, 1899 में स्वामी विवेकानंदजी कश्मीर में अमरनाथजी के दर्शन के बाद श्रीनगर के क्षीरभवानी मंदिर में पहुँचे। वहाँ उन्होंने माँ काली का स्मरण कर समाधि लगा ली।

    एक सप्ताह तक उन्होंने नवरात्रि पर्व पर एकांत साधना की। वे प्रतिदिन एक बालिका में साक्षात् माँ काली के दर्शनकर उसकी पूजा किया करते थे।

    एक दिन उन्होंने श्रद्धालुजनों के बीच प्रवचन में कहा, ‘काली सृष्टि और विनाश, जीवन-मृत्यु, भले और बुरे, सुख और दुःख से युक्त संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करती हैं।

    दूर से उनका वर्ण काला दिख पड़ता है, परंतु अंतरंग द्रष्टा के लिए वह वर्णहीन हैं। यह ब्रह्म से अभेद हैं तथा ये उन्हीं की क्रियाशक्ति का प्रतिनिधित्व करती हैं।

    स्वामीजी ने कहा, ‘अत्याचारियों-दुर्जनों का संहार करते समय गले में मुंडमाल पहने, शस्त्र धारण किए, जिह्वा से टपकते रुधिर को देखकर अनायास आभास होता है कि ये आतंक की प्रतिमूर्ति हैं, जबकि ये सच्चे सरल हृदय भक्तों के लिए सौम्य और कृपामयी हैं।

    अपने भक्तों को अमरत्व का वर देने के लिए सदैव तत्पर रहने वाली देवी हैं।’ उन्होंने कहा, ‘वस्तुतः ब्रह्म और काली, ईश्वर और उनकी क्रियाशक्ति-अग्नि और उसकी दाहिका शक्ति के समान एक और अभेद हैं।

    उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने मृत्यु से पूर्व कहा था, ‘नरेन, माँ काली तेरा पग-पग पर साक्षात मार्गदर्शन करती रहेंगी।’ जीवन के अंतिम दिनों में स्वामीजी जिधर भी जाते,

    उन्हें माँ काली की उपस्थिति का बोध होता। उन्होंने काली द मदर कविता भी लिखी, जिसका निरालाजी ने हिंदी में अनुवाद किया।

    मोक्ष के उपाय Story in Hindi

    प्रत्येक प्राणी किसी-न-किसी रूप में हर क्षण खुश रहने की आकांक्षा रखता है। वह किसी ऐसे अमृतरूपी अमोघ साधन की खोज में लगा रहता है, जो उसे सुखी-समृद्ध व स्वस्थ रखे।

    वेदों में वायु, जल, अन्न, औषधि, विद्या, सत्य, विज्ञान, पवित्रता, सौंदर्य, कांति आदि को आत्मा-परमात्मा का नाम बताया गया है। इन सबके सदुपयोग से व्यक्ति अमर हो जाता है। यजुर्वेद में कहा गया है, ‘अमृतेन सर्वम। यानी भगवान् अमृत हैं और हम सब अमृत-पुत्र।’

    कहा गया है, ‘अमृत-पुत्रों को अमृत या किसी मोक्ष सुख की प्राप्ति के लिए अन्यत्र भटकने की आवश्यकता नहीं है।’ वेदों के अनुसार, जीवन ही अमृत है।

    ब्रह्मांड में तैंतीस देवों की जितनी भी गति, प्रगति तथा परमागति है, वह जीवन के लिए ही है। सुदीर्घ जीवन की कामना इसलिए की गई है कि अमृत-पुत्र मानव ज्यादा-से-ज्यादा सत्कर्म करता हुआ राष्ट्र-समाज का हित करता रहे।

    उपनिषद् में कहा गया है, ‘अमृत पद ही मोक्ष पद है। अंधकार से मुक्त होना ही मुक्ति है। ईश्वर को जान लेने पर मानव के सर्व बंधनों का विनाश हो जाता है।

    अविद्या का नाश, संशय का विनाश और दुष्कर्मों का क्षय होने पर जीव स्वतः मुक्ति प्राप्त कर लेता है।’ पदम् पुराण में भी कहा गया है, जिस प्रकार धन से वासनाओं की तृप्ति होती है,

    वैसे ही सत्कर्मों में लिप्त रहने से या सांसारिक भोगों से विरत होने से हृदय और मन की संतुष्टि होती है। अतः मानव को हर क्षण वासनाओं से मुक्त सत्कर्मों में जीवन व्यतीत करना चाहिए।

    विनय और समर्पण Story in Hindi

    ऋषि-मुनियों, संत-महात्माओं तथा भक्तों ने भगवान् से अपने अवगुणों को अनदेखा कर शरण में लेने की प्रार्थना की है। संत कवि सूरदास ‘प्रभु मेरे अवगुण चित न धरो’ पंक्तियों में विनयशीलता का परिचय देते हुए शरणागत करने की प्रार्थना करते हैं, तो तुलसीदास रामजी से पूछते हैं, ‘काहे को हरि मोहि बिसारो।

    संत पुरंदरदास खुद को दुर्गुणों का दास बताते हुए भगवान् से कृतज्ञता व्यक्त कर कहते हैं-‘कूट-कूटकर मुझमें भरे हुए हैं दुर्गुण, नहीं किया पर तुमने मेरा छिद्रान्वेषण।’

    गुरु नानकदेवजी मात्र भगवान् श्रीरामजी को विपत्ति का साथी बताते हुए कहते हैं-‘संग सखा सभि तज गए, कोई न निबाहियो साथ, कहु नानक इह विपत्ति में, टेक एक रघुनाथ।’

    रवींद्रनाथ ठाकुर गीतांजलि में प्रार्थना करते हैं, ‘भगवान् अपनी चरण धूलि के तल में मेरे शरीर को नत कर दो। मेरे समस्त अहंकार को अपने दिव्य नैनों के जल में डुबो दो। मैं चाहता हूँ चरम शांति, अपने प्राणों में तुम्हारी परम कांति। तुम मेरे हृदय कमल दल में वास कर जाओ।’

    महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला निखिल वाणी में प्रभु से याचना करते हैं, दुरित दूर करो नाथ, अशरण हूँ गहो हाथ।’ अर्चना में वे कहते हैं, ‘जब तक शत मोहजाल, घेर रहे हैं कराल, जीवन के विपुल व्याल, मुक्त करो विश्वनाथ।’

    निराला ब्रह्म से मिलने की गुहार लगाए हुए कहते हैं, ‘रूप के गुण गगन चढ़कर, मिलूँ तुमसे ब्रह्म, मुझको दो सदा सत्संग। सभी शास्त्रों में विनयशीलता और अहंकारशून्यता को भगवान् की भक्ति प्राप्त करने का साधन बताया गया है।

    लालच में भक्ति नहीं Story in Hindi

    महिला संत राबिया अरब में बसरा शहर की एक झोंपड़ी में रहकर हर क्षण भगवान् की याद में खोई रहती थीं। वे कहा करती थीं कि प्रत्येक मनुष्य का जीवन क्षणभंगुर है तथा ईश्वर शाश्वत है ।

    बसरा के लोगों ने एक दिन देखा कि राबिया एक हाथ में आग और दूसरे हाथ में पानी से भरी बाल्टी लिए दौड़ रही हैं। एक व्यक्ति ने उनके पास जाकर पूछा, ‘आप इस तरह बेहाल होकर कहाँ जा रही हैं?’

    राबिया ने कहा, ‘मैं स्वर्ग में आग लगाने और नरक की आग बुझाने जा रही हूँ। मुझे यह देखकर दुःख होता है कि ईश्वर की भक्ति लोग स्वर्ग जाने के लालच में तथा नरक के भय से बचने के लिए करते हैं। भक्ति बिना किसी लालच और भय से की जानी चाहिए।’

    राबिया उपदेश में आगे कहती हैं, ‘हमें अपनी तमाम इंद्रियों का संयम के साथ सदुपयोग करना चाहिए। ईश्वर की उपासना और दोनों हाथों से बीमारों, असहायों की सेवा करते रहना चाहिए।

    केवल आदमी की ही नहीं, मूक पशु-पक्षियों तक की सेवा और दुःखियों के प्रति करुणा भावना से ईश्वर बहुत प्रसन्न होते हैं। बिना किसी लालच के जो व्यक्ति जरूरतमंदों की सेवा-सहायता करता है, उसे वैसी शांति मिलती है, जैसी बड़े-बड़े धनिकों को भी नहीं मिल सकती।

    एक बार उनसे मिलने आए एक धनाढ्य ने अपनी दानशीलता की शेखी बघारनी शुरू कर दी। राबिया ने उससे पूछा, ‘क्या तुम्हारे अंदर, एक भी अवगुण नहीं है? जिस प्रकार तुम अपने दुष्कर्मों को छिपाते हो, उसी प्रकार सद्कर्मों का ढिंढोरा पीटना छोड़ दो।’

    ब्रह्मविद्या का ज्ञान Story in Hindi

    सतयुग में महर्षि दध्यंग आथर्वण अग्रणी ब्रह्मवेत्ता के रूप में विख्यात थे। देव शिरोमणि इंद्र उनकी ख्याति सुनकर एक दिन उनके आश्रम में पहुँचे। इंद्र ने कहा, ‘महर्षि, मेरी मनोकामना पूर्ण करने के लिए मुझे वरदान देने का वचन दें।

    महर्षि आतिथ्य स्वीकार को बहुत महत्त्व देते थे, अतः उन्होंने वचन देकर उनसे बैठने को कहा। महर्षि ने पूछा, ‘अतिथिवर, आप अपना परिचय दें।’ इंद्र ने बताया, ‘मैं देवराज इंद्र हूँ। स्वर्ग से आपके पास ब्रह्मविद्या प्राप्त करने की अभिलाषा से आया हूँ।’

    महर्षि यह सुनते ही चिंतातुर हो उठे। वे शास्त्र के इस वचन को जानते थे कि विद्या दान सुपात्र को ही किया जाना चाहिए। कुपात्र को दी गई विद्या का परिणाम राष्ट्र व समाज के लिए अहितकर होता है।

    इंद्र स्वर्ग के भोगों का लोलुप है, इसलिए वह ब्रह्मविद्या का अधिकारी नहीं हो सकता। मुनि सोचने लगे कि उन्हें क्या करना चाहिए। उन्होंने युक्ति से काम लिया।

    इंद्र को उपदेश देते हुए कहा, ‘देवराज, भोगों में आसक्ति कभी कल्याणकारी नहीं हो सकती। परम तत्त्व की प्राप्ति के लिए मन की निर्मलता, भोगों के प्रति विरक्तता आवश्यक है। यदि योग का आश्रय लेना है, तो सबसे पहले भोग की लालसा पर विजय पानी चाहिए।’

    इंद्र समझ गए कि महर्षि उन जैसे भोग में आसक्त कुपात्र को ब्रह्मविद्या नहीं देने वाले हैं। इसलिए विदा लेते हुए क्रोध में कहा, ‘मुनिवर, यदि इस रहस्यमय विद्या को आपने अन्य किसी को दिया, तो मेरा कोपभाजन आपको बनना पड़ेगा।’ फिर भी क्रोधित न होकर महर्षि ने इंद्र को ससम्मान विदा किया।

    तृष्णा के दुष्परिणाम Story in Hindi

    तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ काशी नरेश राजा विश्वसेन के पुत्र थे। पिता ने सोलह वर्ष की आयु में ही उन्हें सत्ता सौंप दी थी, लेकिन कुछ ही वर्षों में सांसारिक सुखों से उन्हें विरक्ति होने लगी।

    एक दिन उन्होंने अपने पिताश्री से कहा, ‘मैंने काफी समय तक राजा के रूप में सांसारिक सुख-सुविधाओं का उपभोग किया है, फिर भी सुख के प्रति तृष्णा का क्षय नहीं हो पाया।

    जिस प्रकार ईंधन के उपयोग से अग्नि की ज्वाला का शमन नहीं होता, उसी प्रकार सुखोपभोग से तृष्णा की वृद्धि ही होती है।’ कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा, ‘उपभोग के समय हमें जो सुख रुचिकर दिखाई देते हैं,

    वे अत्यंत दुःख के रूप में सामने आते हैं। अतः अब मैं इन भ्रामक सुखों से ऊबकर अपना जीवन सार्थक करने के लिए वन जाना चाहता हूँ।

    राजपद छोड़ने के बाद वन गमन करने से पूर्व पार्श्वनाथ ने उपदेश देते हुए कहा, ‘जीव इंद्रिय लोलुपता की संतुष्टि के लिए दुःख के सागर में गोते लगाता रहता है,

    सत्कर्मों का त्यागकर दुष्कर्मों की ओर प्रवृत्त हो जाता है। लोभ, लालच, राग, द्वेष, चोरी, परस्त्रीगमन और अन्य कई प्रकार के पापों के मूल में मनुष्य की तृष्णा ही विद्यमान है।

    सांसारिक सुख से विरत होने वाले परम संत पार्श्वनाथ ने तीस वर्ष की आयु में ही सभी शास्त्रों का सार ज्ञान ग्रहण कर लिया था ।

    संत-मुनि के वेश में वे सामेदा की पहाड़ी पर साधनारत रहे। साधना पूरी होने के बाद उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन लोगों को सत्य, सदाचार और अहिंसा का पालन करने के उपदेश देने में बिताया। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर के रूप में उन्होंने अमरत्व प्राप्त किया।

    प्रेम ही धर्म Story in Hindi

    स्वामी विवेकानंद विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लेने 1894 में अमेरिका गए। वहाँ एक बुद्धिजीवी ने उनसे पूछा, ‘आपने असंख्य धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया है।

    एक ही शब्द में क्या धर्म का सार व्यक्त कर सकते हैं?’ स्वामीजी ने तुरंत उत्तर दिया, प्राणी मात्र में भगवान् के दर्शनकर सभी से प्रेम करो, यही धर्म का सार है।’

    उन्होंने आगे कहा, ‘निष्कपट भाव से ईश्वर की खोज को भक्तियोग कहते हैं। इस भक्ति का प्रारंभ, मध्य और अंत प्रेम में होता है। इसलिए धर्मशास्त्रों में ईश्वर के साक्षात्कार के सरल साधन प्रेम, करुणा और निश्छलता बताए गए हैं।

    स्वामी विवेकानंद जब अलवर में रहे, तो लाला गोविंद सहाय से उनकी अनन्य मित्रता हो गई। अमेरिका से उन्होंने लाला गोविंद सहाय को पत्र में लिखा,

    ‘वत्स, धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है, व्यर्थ के मतवादों से नहीं। साधुता ही श्रेष्ठ नीति है और सत्य तथा सद्गुणयुक्त व्यक्ति की विजय अवश्य होती है।

    इसी तरह स्वामीजी ने 19 नवंबर, 1894 को अमेरिका से ही आलासिंगा पेरुमल और अन्य भारतीय युवकों को पत्र में लिखा, ‘और किसी बात की आवश्यकता नहीं, जरूरत है-केवल प्रेम, निश्छलता और धैर्य की।

    जीवन का लक्ष्य ही प्रेम है, इसलिए प्रेम ही जीवन है। यही जीवन का एकमात्र गति नियामक है। परोपकार ही जीवन है, परोपकार न करना मृत्यु समान है।

    स्वामीजी ने लिखा है, ‘सत्य पर हमेशा अटल रहो। धन प्राप्त हो या न हो, ईश्वर पर भरोसा रखो। अपने प्रेम की पूँजी बढ़ाते रहो, सफलता स्वतः प्राप्त होगी।

    संयम और सदाचार Story in Hindi

    भगवान् महावीर अपने उपदेशों में आत्मा की शुद्धि पर विशेष ध्यान देने की प्रेरणा दिया करते थे। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, ‘अहिंसा, संयम, तप, क्षमा, स्वाध्याय से आत्मा शुद्ध होती है।

    आत्मा को जानने के तीन साधन हैं-सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन और सम्यक चरित्र। जो राग-द्वेष, मोह-मद आदि विकारों को जीत लेता है, वह स्वयं ही आत्मा से परमात्मा बन जाता है।

    महावीर कहते हैं, ‘सदाचार और संयम ही आत्मा को पूर्ण शुद्ध बनाने में समर्थ है। सदाचारी एवं संयमी व्यक्ति की आत्मशक्ति इतनी प्रबल होती है कि वह किसी भी संकट से भयभीत नहीं होता।

    यहाँ तक कि काल से भी नहीं। अच्छे मार्ग पर चलनेवाला अपना ही मित्र एवं हितैषी है, जबकि बुरे मार्ग पर चलनेवाला अपना ही शत्रु है। सभी प्रकार के दुर्गुणों एवं दुर्व्यसनों का त्यागकर देनेवाला इहलोक और परलोक- दोनों में सुख प्राप्त करता

    है। महावीर कहते हैं, ‘आत्मा ही नरक की वैतरणी नदी है। आत्मा ही स्वर्ग का नंदन वन है। आत्मा ही सर्व इच्छापूर्ति करने वाली धरती की कामधेनु है, इसलिए सबसे पहले आत्मा को जानो।

    आत्मा को शुद्ध रखने के लिए सदाचार-संयम को जीवन में उतारने का संकल्प लो।’ भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों से कहा, ‘दया के समान धर्म नहीं, अन्नदान के समान करुणा नहीं, सत्य के समान कीर्ति नहीं और शील के समान श्रृंगार नहीं।

    जो क्रोध, लोभ, भय और पाँचों इंद्रियों को जीत लेता है वह आत्मजयी होता है। संयम खलु जीवनम् अर्थात् संयम ही जीवन है । जो संयमी-सदाचारी नहीं, वह धार्मिक कदापि नहीं हो सकता।

    मानव में भगवान् Story in Hindi

    रामचंद्र डोंगरेजी महाराज परम विरक्त व ब्रह्मनिष्ठ संत थे। उन्होंने अपने जीवन में सौ से अधिक कथाएँ सुनाई, पर दक्षिणा में एक पैसा भी स्वीकार नहीं किया।

    कथा के चढ़ावे के लिए आने वाला तमाम धन वे असहाय व अभावग्रस्तों के लिए भोजन की व्यवस्था और गरीब कन्याओं के विवाह के लिए भेंट कर देते थे।

    अन्नदान को वे सर्वोपरि धर्म मानते थे। संत डोंगरेजी महाराज कहा करते थे, ‘प्रभु ने हमें जन्म इसलिए दिया है कि हम उनके बनाए गए संसार को सुखी बनाने में जीवन लगाएँ। यदि तुमको सुखी होना है, तो सबमें परमात्मा के दर्शन करके दूसरों को सुख और संतोष दो। दूसरों को सुख देना ही प्रभु की सच्ची पूजा है।

    एक बार उनसे किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया, ‘अशांति क्यों बढ़ रही है?’ डोंगरेजी ने बताया, ‘धनार्जन की अंधी दौड़ ने अशांति बढ़ाई है। संतोषी और सात्त्विक जीवन जीने की अपेक्षा जबसे सांसारिक भोगों के प्रति लालसा बढ़ी है, तभी से धनार्जन की तृष्णा बलवती हुई है।

    यही अशांति का मूल कारण है।’ कुछ क्षण रुककर वे कहते हैं, कितने ही लोगों को मूर्ति में भगवान् दिखाई देते हैं, पर उन्हें मानव में ईश्वर नहीं दिखाई देते।

    यदि मानव एक-दूसरे में भगवान् के दर्शनकर दूसरों को सुखी करने का प्रयत्न करे, तो जगत् की बहुत सी समस्याएँ स्वतः हल हो जाएँगी। प्यासे को पानी,

    भूखे को अन्न और रोगी को दवा देकर सेवा करने वाले लोग असल में प्रभु की ही पूजा करते हैं। मानव ही नहीं, माँ स्वरूपा गाय और अन्य मूक जीवों की सेवा करने से भी भगवान् प्रसन्न होते हैं।’

    दुःख में सुमिरन Story in Hindi

    कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से दुःख स्वीकार करने को तत्पर नहीं हो सकता। सभी हर क्षण सुखी रहने की कामना करते हैं। महाभारत में जरूर पांडवों की माता कुंती का प्रसंग मिलता है,

    जो भगवान् से प्रार्थना करती हैं, ‘प्रभु, मेरे जीवन में समय-समय पर दुःख का आभास होते रहना चाहिए। मैंने अनुभव किया है कि सुख में आपकी याद नहीं आती। केवल संकट और दुःख में ही आप याद आते हैं।

    अनेक दार्शनिकों ने मत व्यक्त किया है कि अंधकार के बिना प्रकाश की अनुभूति ही नहीं होती। इसी प्रकार, दुःखों के बिना सुख के महत्त्व का पता ही नहीं चलता। दिन-रात, अंधकार-प्रकाश, सुख-दुःख सभी एक दूसरे के महत्त्व का आभास देने वाले माने गए हैं।

    भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, माया स्पर्शस्तुकौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा। अर्थात्, हे अर्जुन, शीतलता-उष्णता, सुख-दुःख अंतःकरण के धर्म हैं।

    जब हम अंतःकरण को छोड़कर ऐसे स्थान पर चले जाते हैं, जहाँ जगत का भास नहीं होता, जहाँ सुख-दुःख नहीं रहते, वही परमानंद की स्थिति है। सुख-दुःख को क्षणिक मानना चाहिए।

    गणेशपुरी आश्रम में एक सज्जन बाबा मुक्तानंद परमहंस के सत्संग के लिए पहुंचे। उन्होंने बाबा से प्रश्न किया, ‘परमेश्वर तो सच्चिदानंद हैं, फिर उसने प्राणियों को दुःख की अनुभूति क्यों दी?’

    बाबा ने कहा, “भैया, दुःख ही मानव के कल्याण का सच्चा साथी है। इसके आते ही मानव सोचने लगता है कि असंयम और अनीति से दुःख को मैंने ही आमंत्रित किया है। इसलिए वह संयमित और अनुशासित जीवन जीने को प्रेरित होता है।

    धन की तृष्णा Story in Hindi

    सभी धर्मशास्त्रों में धन-संपत्ति तथा अन्य सांसारिक पदार्थों के प्रति तृष्णा को पतन का मूल कारण बताया गया है। महाभारत के वन पर्व में कहा गया है, तृष्णा ही सर्वपापिष्ठा अर्थात् तृष्णा सर्वाधिक पापमयी है। तृष्णा के कारण मानव घोर पाप कर्म करने में भी नहीं हिचकिचाता।

    विष्णु पुराण में कहा गया है, ‘जो व्यक्ति धन-संपत्ति को भगवान् की धरोहर मानकर उसका सत्कर्मों में उपयोग करता है और सांसारिक वस्तुओं पर अपना अधिकार नहीं मानता, वह तृष्णा से बचा रह सकता है।’

    पुराण में कहा गया है, ‘इस पृथ्वी पर जितने धान, जौ, सुवर्ण, पशु आदि द्रव्य हैं, वे सब यदि किसी एक पुरुष को मिल जाएँ, तो भी उसे संतोष नहीं होगा। पुरुष की आशा-आकांक्षा की कोई सीमा नहीं है। तृष्णा समुद्र के समान है, वह कभी भरती ही नहीं। ‘

    धर्मराज युधिष्ठिर के प्रश्न का उत्तर देते हुए देवर्षि नारद कहते हैं, ‘मनुष्यों का अधिकार केवल उतने ही धन पर है, जितने से उसकी भूख आदि की पूर्ति हो सके।

    धर्मशास्त्रों में तो यहाँ तक कहा गया है कि न्यायपूर्वक अर्जित धन का दशांश सेवा-परोपकार आदि सत्कर्मों पर अवश्य व्यय किया जाना चाहिए। जो अधिक धन अर्जित कर लेते हैं, उन्हें पाँचवाँ अंश अभावग्रस्त लोगों के कल्याण पर खर्च करना चाहिए।

    भगवान् शिव पार्वती से कहते हैं, ‘देवी, अर्थ को अनर्थ का मूल समझो। धनवान् पर सदा पाँच शत्रु चोट करते हैं-राजा, चोर, उत्तराधिकारी भाई बंधु, अन्यान्य प्राणी और क्षय।’ वस्तुतः आज यह बात सत्य सिद्ध हो रही है कि धन की बढ़ती हुई तृष्णा के कारण ही अनाचार और भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं।

    धन का सदुपयोग Story in Hindi

    श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है, ‘यज्ञ करो, देवताओं को तो देवता भी तुम्हें तृप्त करेंगे। यज्ञ से तृप्त देवता प्रकृति के रूप में बिना माँगे ही इच्छित भोग देते रहेंगे। तृप्त करो,

    महर्षि याज्ञवल्क्यजी ने लिखा है, ‘जो ईमानदारी से अर्जित धन को सत्कर्मों में खर्च करता है या उस धन का इस्तेमाल धर्म-कर्म व सेवा परोपकार में करता है, उसे असंख्य गुना धन प्रभु प्रदान करते हैं।

    कुरान में भी कहा गया है, ‘यदि कोई आराम का जीवन बिता रहा है और उसका पड़ोसी भूखा सो रहा है, तो उस दुर्जन को दोजख (नरक ) में जगह मिलती है। ईसा तो शिष्यों से हमेशा कहा करते थे, ‘जो भी अर्जित करो, बाँटकर खाओ। धन-संपत्ति पर अपना हक न समझो।”

    विचारक लेखक धर्मेंद्र देव आत्मा का अर्थशास्त्र में लिखते हैं, ‘एक भट्टे से आठ भट्ठे बन गए। उनमें तैयार ईंटों से असंख्य अट्टालिकाएँ खड़ी हो गईं, किंतु जिन पथेरों ने जीवन-भर ईंटें पारथी,

    क्या उनमें से एक का भी अच्छा घर बन पाया? बड़े-बड़े मकान बनाने वाले मजदूर अंतिम श्वास जर्जर झोंपड़ी में लेता है, यह भौतिक अर्थशास्त्र का परिणाम है। ‘

    जो भी संपत्ति है, वह मेरी नहीं, भगवान् की है। उसका उपयोग समाज के लिए, सत्कर्मों व सेवा-परोपकार के लिए है भारतीय संस्कृति का यह सूत्र मात्मा के अर्थशास्त्र का एक नमूना है ।

    धर्मेंद्र देवजी लिखते हैं, ‘बाँटने से अधिक भागीदार बनाओ, दुःखी जनों को सुखी बनाओ, रोगियों को दवा-चिकित्सा उपलब्ध कराओ, इसे ही आत्मा का अर्थशास्त्र कहते हैं। देने-बाँटने से खजाना कभी खाली नहीं होता।

    भगवान् का मंदिर Story in Hindi

    महर्षि रमण दावा करते थे कि वे हर दिन भगवान् का साक्षात्कार करते हैं। एक दिन एक भक्त ने भी उनसे भगवान् के दर्शन कराने की प्रार्थना की।

    महर्षि रमण उसे एक झोंपड़ी में ले गए और वहाँ बैठे वृद्ध कोढ़ी की ओर संकेत कर बोले, ‘मैं प्रतिदिन इस भगवान् का साक्षात्कार कर पूर्ण रूप से आनंद की अनुभूति करता हूँ।

    वेदों, पुराणों, उपनिषदों में ऐसे अनेक प्रसंग मिलते हैं, जिनमें कहा गया है कि शुद्ध व निश्छल हृदय में भगवान् स्वतः निवास करने को उत्सुक रहते हैं।

    जहाँ कपट, छल-छिद्र है या जिसके हृदय में राग, द्वेष, हिंसा व प्रतिशोध की भावना है, परमात्मा ऐसे अपवित्र वातावरण में एक पल भी नहीं रह सकते।

    एक बार ईसा येरुशलम के गिरिजाघर गए। उन्होंने वहाँ की भव्यता और शान-शौकत देखकर शिष्यों से कहा, ‘गिरिजाघर को कितना भी भव्य रूप दे दो, एक दिन वह गिरकर नष्ट हो जाएगा।’

    उन्होंने शिष्यों से पूछा, ‘बताओ, ऐसा कौन सा पूजास्थल है, जो कभी नष्ट नहीं होगा? भयंकर-से-भयंकर तूफान भी उसे नुकसान नहीं पहुँचा पाएँगे?’

    कुछ क्षण रुककर उन्होंने खुद कहा, ‘प्रभु का वह शाश्वत मंदिर उन लोगों के दिल में है, जो एक-दूसरे से प्रेम करते हैं। वह कभी नष्ट नहीं होगा।

    एक दिन ईसा ने शिष्यों से पूछा, ‘क्या तुम मेरे उपदेशों का सार समझते हो?’ साइमन पतरस ने कहा, ‘मेरे विचार में आपकी शिक्षा का सार है कि प्रत्येक मनुष्य में परमात्मा की शक्ति विद्यमान है, इसलिए हर आदमी परमात्मा का पुत्र है।

    ईसा ने शाबाशी देते हुए कहा, ‘परमात्मा तेरे अंदर है, इसलिए तू मेरी शिक्षा का मर्म जान गया।

    सच्चे सुख की तलाश Story in Hindi

    अधिकांश लोग भौतिक सुविधाओं को सुख का साधन मानते हैं, इसलिए ‘सुख-सुविधा’ शब्द का प्रायः एक साथ उपयोग किया जाता है। सुख पाने के लिए मानव अत्याधुनिक भौतिक साधनों की खोज में लगा रहता है।

    किंतु देखने में आता है कि असीमित सुविधाओं से संपन्न व्यक्ति भी कहता है, ‘मुझे आत्मिक सुख-शांति नहीं मिल पा रही है।’ सुख-शांति की खोज में करोड़पतियों को भी साधु-संतों के आश्रम में चक्कर लगाते देखा जा सकता है।

    योग दर्शन में कहा गया है, ‘संतोषदनुत्तमसुख लाभः’ यानी जो जीवन में संतोष धारण करेगा, उसी को सच्चे सुख की प्राप्ति होगी। भगवान् श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं, ‘संतुष्ट सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः’ अर्थात्, मानव को सदैव संतुष्ट रहना चाहिए। जीवन में

    संतोष रखोगे, तो हर क्षण सुख की अनुभूति होती रहेगी । महर्षि अरविंद कहते हैं, ‘सुख का संबंध चेतना के साथ है। अनुकूल संवेदन होता है, तो सुख की अनुभूति होती है।

    प्रतिकूल संवेदन होने से दुःख की अनुभूति होती है। जिस व्यक्ति ने शरीर की जगह आत्मा को महत्त्व देना शुरू कर दिया, वह हर क्षण अनूठे सुख का आनंद प्राप्त करने लगता है।’

    भ्रमवश भौतिक पदार्थों और सुविधाओं में सुख ढूँढ़ने वाला व्यक्ति न कभी संतोष का अनुभव कर सकता है और न आत्मिक सुख का। धन- सुविधाओं में जितनी वृद्धि होने लगती है,

    उतना ही दुःख, असंतोष व तनाव सुरसा की तरह बढ़ने लगता है। इसलिए अंत में यह मानने को विवश होना पड़ता है कि सच्चा और स्थायी सुख संतोष से ही पाया जा सकता है।

    ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति Story in Hindi

    धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि प्रत्येक प्राणी में परमात्मा के दर्शन करनेवाला और प्रत्येक जीव से प्रेम करनेवाला सच्चा ब्रह्मज्ञानी होता है। एक दिन ब्रह्मनिष्ठ संत उड़िया बाबा गंगा तट पर श्रद्धालुओं को उपदेश दे रहे थे।

    उन्होंने अचानक दोनों हाथों से गंगाजी की बालुका (रेती) उठाई और पास बैठे भक्त को संबोधित करते हुए कहा, ‘शांतनु, जब तक यह बालुका साक्षात् ब्रह्म न मालूम पड़े, तब तक यह समझना कि अभी ब्रह्मज्ञान अधूरा है। ब्रह्म-बोध होने पर तो ब्रह्म से पृथक कुछ दिखाई ही नहीं देगा।

    उन्होंने आगे कहा, ‘ब्रह्मज्ञानी को तो यह लगने लगता है कि जो कुछ दिख रहा है, सब सच्चिदानंद ब्रह्म ही है। यह संपूर्ण सृष्टि वृंदावन है। प्रत्येक स्त्री राधा और पुरुष कृष्ण हैं। सच्चा ब्रह्मज्ञानी किसी से राग-द्वेष की, उसे दुःखी देखने की कल्पना भी कैसे कर सकता है!

    महान् भागवताचार्य स्वामी अखंडानंद सरस्वती भी प्राणी मात्र में भगवान् के दर्शनकर सभी से प्रेम करने की प्रेरणा दिया करते थे । एक दिन स्वामी प्रबुद्धानंदजी ने उनसे पूछ लिया, ‘आप जहाँ विद्वानों से प्रेम करते देखे जाते हैं, वहीं मूर्खों व नास्तिकों को भी प्यार करते हैं-ऐसा भला कैसे संभव है?’

    स्वामीजी ने इसके उत्तर में कहा, ‘मुझे ऐसा कभी नहीं लगता कि इस देह के भीतर मैं हूँ और बाहर कोई अन्य। लगता है सब अपना है, इसलिए मैं सभी से एक समान विनयशीलता का व्यवहार करता हूँ।

    स्वामीजी हमेशा यह कहा करते थे कि कभी किसी का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।

    आचरण के बिना व्यर्थ Story in Hindi

    दार्शनिक राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन स्वयं शिक्षक रहे थे। वह कहा करते थे, वही शिक्षा सार्थक कही जाएगी, जो सदाचारी व संस्कारी बनने की प्रेरणा देती है।

    संस्कारहीन शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को यह विवेक नहीं रहता कि क्या करने में कल्याण है। इसलिए शिक्षा के साथ-साथ आचरण की शुचिता पर आवश्य ध्यान देना चाहिए।

    रावण ने सोने की लंका बनाई। उसने विशाल भवन में अनेक शालाओं का निर्माण कराया। एक दिन उसकी इच्छा हुई कि कोई मुनि लंका का अवलोकन कर उसकी उपलब्धियों का बखान करे।

    रावण ने कुकुत मुनि को सादर आमंत्रित करते हुए कहा, ‘आपके चरण मेरे महल में पड़ने चाहिए। उसकी दिव्यता और उपलब्धियों को देखकर आप स्वतः मुझे आशीर्वाद देने को तत्पर होंगे।’

    मुनि ने आमंत्रण स्वीकार कर लिया। जब वह लंका पहुँचे तो रावण ने उन्हें निरीक्षण कराते हुए कहा, ‘यह अस्त्रशाला है, इसमें तरह-तरह के आधुनिक शस्त्रास्त्र हैं।

    यह चिकित्सालय है, यहाँ रोगों के निवारण के लिए तरह-तरह की औषधियाँ हैं। इस जगह मेरे इष्टदेव भगवान् शंकरजी की स्मृति में हर समय गायन वादन चलता रहता है।’

    मुनि का ध्यान बरबस मदिरालय की ओर गया। वह समझ गए कि यह रावण की असुरता का प्रतीक है। मुनि श्री ने कहा, ‘रावण, तुम्हारे कक्ष में भव्य शस्त्रशाला है,

    किंतु इन शस्त्रों का उपयोग किसके विरुद्ध किया जाना चाहिए, क्या इसका विवेक देनेवाली आचरणशाला है?’ मुनि ने उसे चेताते हुए कहा, ‘आचरणहीनता ही तुम्हारी लंका तथा तुम्हारे वंश के समूल नाश का करण बनेगी। कालांतर में मुनि की बात सच हुई।

    सत्य पर अटल Story in Hindi

    आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों के इस वाक्य को अपने उपदेशों में दोहराया करते थे कि सत्य पर अटल रहना चाहिए। प्राण भी चले जाएँ, किंतु सत्य का त्याग नहीं करना चाहिए।

    वे केवल वाणी से ही सत्य के महत्त्व को प्रस्तुत नहीं करते थे, बल्कि स्वयं जिस बात को वेदोक्त मानते थे, उसका सदैव दृढ़ता से पालन किया करते थे।

    स्वामीजी प्रवचन में स्वदेश प्रेम, राष्ट्रभाषा हिंदी को अपनाने, स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमान कर कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देने की प्रेरणा दिया करते थे।

    एक बार स्वामीजी किसी सभा में प्रवचन देने जाने वाले थे। उनके एक भक्त ने कहा, ‘वहाँ अंग्रेज गवर्नर और कलेक्टर होंगे। ऐसी स्थिति में प्रवचन में कोई ऐसी बात नहीं कहिएगा, जिससे किसी को लगे। बुरा

    स्वामीजी समारोह में पहुंचे। प्रवचन शुरू करते ही वे बोले, ‘लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट न करो, कलेक्टर-कमिश्नर-गवर्नर आदि को बुरा लगेगा। वे क्रोधित होंगे, पर चक्रवर्ती राजा भी क्यों न अप्रसन्न हो, हम तो सत्य ही कहेंगे।’

    उन्होंने गीता का उद्धरण देते हुए कहा, ‘आत्मा को न तो कोई हथियार छेद सकता है और न ही आग जला सकती है। यह शरीर तो अनित्य है। इसकी रक्षा के लिए अधर्म करना व्यर्थ है।

    क्या कोई वीर पुरुष यह दावा कर सकता है कि वह मेरी आत्मा का नाश कर देगा? शरीर रक्षा के लोभ में मैं सत्य को क्यों दबाऊँ?’ स्वामीजी की निर्भीक वाणी सुनकर सभी हतप्रभ रह गए। स्वामीजी वेदों के ज्ञान का जीवनपर्यंत प्रचार-प्रसार करते रहे।

    दान का मूल्यांकन Story in Hindi

    प्रत्येक धर्मशास्त्र में सत्य, अहिंसा, दया, दान, उपवास आदि की महत्ता बताई गई है। इन्हें धर्म का अंग बताया गया है। साथ ही इनका पालन करते समय विवेक-बुद्धि से आकलन की भी प्रेरणा दी गई है।

    सत्य पर अटल रहना चाहिए, झूठ कदापि नहीं बोलना चाहिए, किंतु यदि सत्य बोलने के संकल्प के कारण किसी निर्दोष के प्राणों पर संकट की आशंका हो, तो विवेक से काम लेकर असत्य बोलना भी धर्म है।

    ध्यान पद्धति विपश्यना के आचार्य सत्यनारायण गोयनका उदाहरण देते हुए लिखते हैं, ‘दान धर्म का एक अंग है, किंतु दान का नैतिक मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है।

    दान देते समय किसी भी लोभ या लालसा की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। यदि दान देते समय बदले में कुछ प्राप्त करने की लालसा है या यश की कामना है, तो ऐसा दान शुद्ध निष्काम निरहंकार चित्त से दिए गए दान की अपेक्षा बहुत हल्का होता है।

    श्री गोयनका उपवास का उदाहरण देते हैं, ‘उपवास द्वारा शरीर को स्वस्थ रखते हैं, जिससे शरीर को धर्म -सेवा -उपकार और सत्कर्मों में लगाया जा सके।’

    शास्त्रों के अध्ययन को धर्म का अंग माना गया है, किंतु यदि कोई व्यक्ति सभी वेदों, उपनिषदों, पुराणों तथा अन्य मत संप्रदायों के सिद्धांतों का गहन अध्ययन करने के बाद भी उन सिद्धांतों को जीवन में नहीं उतारता या शील-सदाचार का पालन नहीं करता,

    तो उसे धार्मिक कैसे माना जा सकता है? अतः धर्मशास्त्रों में बताए गए उपायों को सबसे पहले स्वयं अपने जीवन में उतारना चाहिए । शील – सदाचार ही सच्चा धर्म है।

    धन की सार्थकता Story in Hindi

    माँ लक्ष्मी धन की अधिष्ठात्री देवी हैं। ज्योति पर्व दीपावली के दिन धन-धान्य व सुख प्राप्ति की आकांक्षा से विधि विधान से लक्ष्मी पूजन किया जाता है। पुराणों में कहा गया है कि लक्ष्मी उसी पर कृपा करती हैं, जो पुरुषार्थी, सदाचारी, संयमी व भगवद्भक्त होता है।

    देवी पुराण में कहा गया है, ‘जो गृहिणी भगवान् की पूजा- अर्चना करती है, पति, सास-ससुर और वृद्धजनों की सेवा करती है, संतोषी व सात्त्विक जीवन गुजारती है,

    कटु वचन नहीं बोलती और अतिथि सेवा को तत्पर रहती है, लक्ष्मी ऐसी आदर्श गृहिणी के पास रहने को आतुर रहती हैं। धर्मशास्त्रों में लक्ष्मी (धन) के अर्जन की भी विधि का वर्णन करते हुए कहा गया है,

    ‘परिश्रम व न्याय अर्थात् ईमानदारी से ही धनार्जन करना चाहिए। अनीति से अर्जिन धन विनाश का कारण बनता है। न्यायोचित्त तरीके से अर्जित धन ही कल्याणकारक है। अतः उसका सदुपयोग करना चाहिए।

    पुराणों में कहा गया है, जिस प्रकार शरीर की शुद्धि जल से होती है, उसी प्रकार धन की शुद्धि दान से होती है। दया-करुणा के पाँव पर धर्म टिका हुआ है। अतः अर्जित धन का ज्यादा-से-ज्यादा अंश सत्कर्मों व सेवा-परोपकार में खर्च करना ही सार्थकता है।

    ब्रह्मनिष्ठ संत रामचंद्र डोगरेजी कहा करते थे, ‘धन लक्ष्मी का स्वरूप है और लक्ष्मी माँ है। माँ का उपभोग नहीं, सत्कर्मों में सदुपयोग करना चाहिए।

    यदि अर्थ का पाप कर्मों, भोग-विलास आदि में उपयोग किया जाता है, तो वह अमृत की जगह विष बनकर शरीर को नष्ट कर देता है। अतः धन के उपयोग में पूर्ण सावधानी बरतने में ही अर्थ की सार्थकता है।

    दीप जलाकर देखो Story in Hindi

    तीर्थंकर महावीर से एक दिन एक श्रद्धालु ने पूछा, ‘भगवन्, मैं सभी व्रतों का यथासंभव पालन करता हूँ। अर्जित धन का एक अंश दान करता हूँ, उपवास भी करता हूँ, किंतु कभी-कभी ऐसा लगता है कि जीवन व्यर्थ जा रहा है। मन की शांति के लिए क्या करना चाहिए?’

    यह सुनकर महावीर ने उसी से प्रश्न किया, ‘क्या केवल धन के दान को ही सेवा मानकर संतोष कर लेते हो या कभी समय निकालकर अपने हाथों से भी किसी की सेवा करते हो?’

    उस व्यक्ति ने उत्तर दिया, ‘धनार्जन तथा पारिवारिक कार्यों से नहीं मिलती, इसलिए किसी की सेवा नहीं कर पाता।’ फुरसत

    महावीर ने कहा, ‘अपने हाथों से सेवा करने, अँधेरे को दूर करने के लिए दीपक जलाने से जो संतोष मिलता है, वह केवल धन दे देने मात्र से कदापि नहीं मिल सकता। दूसरों को अपने हाथों से सुख देने वालों को ही सच्चा संतोष मिलता है। अँधेरे में भटक रहे किसी व्यक्ति को दीपक की रोशनी में रास्ता दिखाकर देखो, तुम्हें स्वयं दिव्य प्रकाश और आनंद की अनुभूति होने लगेगी।’

    एक अन्य जिज्ञासु ने महावीर से पूछा, ‘जैन धर्म का सार क्या है?’ महावीर कहते हैं, ‘जो तुम अपने लिए चाहते हो, वह दूसरों के लिए भी चाहो और जो अपने लिए नहीं चाहते, वह दूसरों के साथ भी न करो, यह जिन शासन है यानी जैन धर्म का सार।’

    तीर्थंकर महावीर जीवन के अंतिम क्षणों तक सद्विचारों के प्रकाश से सभी को आलोकित करते रहे।

    सत्कर्म करते रहो Story in Hindi

    विधि का नियम है कि मानव को जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत कुछ-न- कुछ कर्म करते रहना पड़ता है। इसलिए धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि मनुष्य को हर क्षण सत्कर्म में ही व्यतीत करना चाहिए। सत्कर्म करते रहने में ही जीवन की सार्थकता है।

    आदि शंकराचार्य कहते हैं, जो पुरुषार्थहीन है, वह वास्तव में जीते-जी मरा हुआ है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं, ‘युक्ताहार विहारस्य युक्त चेष्टस्य कर्मसु।’

    यानी बुद्धिमान को उचित जीवनचर्या एवं पुरुषार्थ में लगे रहना चाहिए। एक क्षण भी आलस्य, प्रमाद, भोग या किसी अन्य प्रकार के दुष्कर्म में कदापि नहीं खोना चाहिए।

    मुनि याज्ञवल्क्य कहते हैं, ‘व्यक्ति यदि अपने कर्म को धर्म, कर्तव्य एवं पूजा मानकर करे, तो उसका जीवन सार्थक हो जाता है। अपना नियत कर्म किए बिना जीवन-निर्वाह भी नहीं हो सकता।’

    पितामह भीष्म ने उपदेश में अक्रोध, सत्य, क्षमा, समभाव, सरलता आदि को मानव का सामान्य धर्म बताया है। धर्मशास्त्रों में न्यायोचित्त धनार्जन करते हुए भक्ति, सेवा, परोपकार, दान, स्वाध्याय, अतिथि सेवा, सत्संग आदि सत्कर्म में रत रहने की प्रेरणा दी गई है।

    असत्य भाषण, बेईमानी, हिंसा, असंयम, अभक्ष्य भक्षण अर्थात् मांस- मदिरा तथा अन्य नशीले पदार्थों का सेवन आदि को निंदित कर्म बताकर इनसे सदैव बचने की प्रेरणा दी गई है।

    स्कंद पुराण में कहा गया है, ‘निषिद्ध कर्मों को करने एवं विहित कर्मों का त्याग करने से मनुष्य के पुण्य नष्ट हो जाते हैं तथा उसे तरह-तरह के संकट घेरकर दुरावस्था को पहुंचा देते हैं।’ अतः हर क्षण सत्कर्म करते रहने में ही मानव का कल्याण है।

    ईश्वर के बंदों से प्रेम Story in Hindi

    एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, “मैं उससे प्रेम करता हूँ, जो हर प्राणी के प्रति, दुःखियों के प्रति करुणा की भावना रखकर उनसे प्रेम करता है और उनकी सेवा करता है।

    ईसा ने भी कहा है, ‘जो पड़ोसी से, अभावग्रस्त से प्रेम करता है, उसकी सहायता करता है, मैं उससे प्रेम करता हूँ।

    अरब की एक प्राचीन कथा है। एक रात अबू ने देखा कि एक फरिश्ता किताब में कुछ लिख रहा है। अबू ने फरिश्ते से पूछा कि क्या लिख रहे हो, तो उसने बताया कि मैं उन लोगों के नाम लिख रहा हूँ, जो ईश्वर से प्रेम करते हैं।

    अबू ने जिज्ञासावश पूछा कि क्या मेरा नाम इस सूची में है? फरिश्ते ने कहा कि नहीं, इसमें तुम्हारा नाम नहीं है। अबू ने कहा, ‘कोई बात नहीं। तुम मेरा इतना काम कर दो कि मेरा नाम उस सूची में लिख दो, जो ईश्वर के बंदों से प्रेम करता है।

    फरिश्ते ने उनका नाम लिख लिया और गायब हो गया। अगली रात फरिश्ता फिर आया। फरिश्ते ने अबू को उन लोगों के नाम दिखाए, जिन्हें ईश्वर ने अपना आशीर्वाद दिया था।

    अबू यह देखकर झूम उठा कि उसका नाम सूची में सबसे ऊपर था। अबू को अब यकीन हो गया कि खुदा उसी से प्रेम करता है, जो उसके बंदों से प्रेम करता है। खुदा को खुश करने के लिए, उसका आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसके बंदों की बस्ती से गुजरना पड़ता है।

    गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है कि जो भक्तों को सताता है, उसे भगवान् श्रीराम के कोप का भाजन बनना पड़ता है। अतः हमेशा ईश्वर के बंदों से प्रेम करने का प्रयास करना चाहिए।

    मानवता का गुण Story in Hindi

    ऋग्वेद का एक मंत्र है- मनुर्भव अर्थात् मनुष्य बनो। वैदिक विद्वान् वेदमूर्ति पं. सातवलेकर ने एक सभा में जब मंत्र दोहराया-मनुर्भव, तो एक सज्जन ने पूछा, ‘क्या सभा में उपस्थित लोग मनुष्य नहीं हैं?’

    पंडित सातवलेकरजी ने कहा, ‘भाई! हर जीव के कुछ लक्षण होते हैं। यदि मानवता नहीं है, तो कोई मानव कैसे कहला सकता है? लक्षणों से ही तो सुर-असुर के भेद को जाना जा सकता है।

    स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए हुए थे। भोग-विलास में आकंठ डूबे वहाँ के लोगों को सार्वजनिक स्थलों पर मर्यादाहीनता का खुला प्रदर्शन करते देख वे हतप्रभ रह गए।

    उन्होंने भी वहाँ एक समारोह में वेद मंत्र मनुर्भव का उच्चारण करने के बाद कहा, ‘केवल मानव योनि में पैदा हो जाने से ही किसी को मानव नहीं माना जा सकता।

    हमारी भारतीय संस्कृति में धर्मेण हीनः पशुभि समानः कहकर कुछ नियमों का, धर्म का पालन करने वाले को ही मानव बताया गया है ।’

    उन्होंने विस्तार से बताया कि जिस व्यक्ति के हृदय में दया, करुणा नहीं है, जिसका जीवन संयमपूर्ण नहीं है, जो धर्म अर्थात् कर्तव्यों का पालन नहीं करता, उसे मनुष्य कैसे कहा जा सकता है।

    स्वामी रामतीर्थ ने भी कहा था, ‘गुण एवं कर्म के आधार पर ही मनुष्य को इस लोक में मानव, दानव की संज्ञा मिलती है। इसलिए किसी को क्रूरतम् दुष्कर्म करते देखकर सहसा मुख से निकल जाता है-यह तो पशु से भी गया-बीता है।’

    बच्चों के जन्म के बाद संस्कारित किए जाने की परंपरा रही है। उसे बताया जाता है कि सत्य बोलो, हिंसा न करो, दुःखियों की सेवा करो। इन सद्गुणों से ही सच्चा मानव बनाया जाता है।

    जहाँ धर्म, वहीं विजय Story in Hindi

    महानारायणोपनिषद् में कहा गया है, धर्मों विश्वस्य जगतः प्रतिष्ठा अर्थात् धर्म ही समस्त संसार की प्रतिष्ठा का मूल है। भगवान् श्रीकृष्ण भी कहते हैं कि प्राणों पर संकट भले ही आ जाए, फिर भी धर्म पालन से डिगना नहीं चाहिए।

    महाभारत युद्ध के दौरान दुर्योधन प्रतिदिन माता गांधारी के पास पहुँचकर विजय की कामना के लिए आशीर्वाद की याचना किया करता था। गांधारी धर्म के तत्त्व को समझने वाली विदुषी महिला थीं।

    जैसे ही दुर्योधन आशीर्वाद की याचना करता, गांधारी कहतीं, यतो धर्मस्ततो जयः। अर्थात् जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। गांधारी जानती थीं कि दुर्योधन अधर्म के रास्ते पर है, इसलिए वे विजय के लिए आशीर्वाद नहीं देती थीं।

    युद्ध में एक-एक कर गांधारी के समस्त पुत्रों का अंत हो गया। धर्मज्ञ होने के बावजूद वे एक माँ थीं। उनका हृदय पुत्र-शोक से संतप्त हो उठा। कौरवों का नाश करने के बाद युधिष्ठिर पांडवों समेत गांधारी के पास संवेदना व्यक्त करने पहुँचे।

    वहाँ महर्षि व्यास भी आ पहुँचे। गांधारी ने जैसे ही युधिष्ठिर एवं अन्य पांडवों को देखा, वे अपने पुत्रों को याद कर धैर्य खोकर क्रोध में तमतमा उठीं।

    महर्षि व्यास समझ गए कि गांधारी शाप के शब्द निकालने को तत्पर हैं। उन्होंने कहा, ‘राजकुमारी गांधारी, शांत हो जाओ। तुम्हें धैर्य खोकर पांडवों पर क्रोध नहीं करना चाहिए।

    आशीर्वाद की याचना किए जाने पर तुम दुर्योधन को एक ही बात कहती थीं कि जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। क्या पांडवों की विजय के बाद भी तुम्हें विश्वास नहीं होता कि पांडवों की विजय धर्म की विजय है?’ इस पर गांधारी शांत हो गईं।

    पत्नी स्वर्ग का साधन है Story in Hindi

    कश्यपस्मृति में कहा गया है, दाराधीना क्रियाः स्वर्गस्य साधनम्। तीर्थयात्रा, दान, श्राद्धादि जितने भी सत्कर्म हैं, वे सभी पत्नी के अधीन हैं। अतः पत्नी स्वर्ग का साधन है। यह भी कहा गया है कि नास्ति भार्यासमं तीर्थम् अर्थात् पत्नी साक्षात् तीर्थ है।

    स्वामी सत्यमित्रानंदगिरिजी धर्म प्रचार के लिए अमेरिका गए, तो एक अमेरिकी ने उनसे पूछा, ‘क्या भारत में पति की मृत्यु होने पर पत्नी को जला डालने की क्रूर परंपरा अभी तक जीवित है ।’

    स्वामीजी ने कहा, ‘भारत में कभी नारी को विलासिता का साधन नहीं माना गया। धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता, अर्थात् जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवताओं की कृपा बसती है।

    उन्होंने आगे कहा, ‘समय-समय पर अगर कुछ स्वार्थी धूर्तों ने संपत्ति आदि के लालच में पति की मृत्यु के बाद पत्नी को जला डाला, तो उसे घोर अधर्म ही कहा जाएगा। उसे प्रथा बताकर भारत के विरुद्ध दुष्प्रचार करना कुटिलता है।’

    आध्यात्मिक विभूति हनुमानप्रसाद पोद्दार ने स्त्रियों को भोग का साधन समझने वालों को घोर अधर्मी बताते हुए लिखा, ‘स्त्री को सहभागी बनाए बिना कोई भी सत्कर्म सफल नहीं हो सकता। ‘

    पुराण में एक राजा की कथा आती है। उसने जीवन में अनेक पुण्य कर्म किए, लेकिन एक बार अपनी पत्नी का अपमान कर दिया। इससे उसके अन्य सत्कर्मों के पुण्य क्षीण हो गए।

    कृकाल नामक गृहस्थ पत्नी की सहमति के बिना अकेला तीर्थयात्रा को चला गया। उसने तीर्थ में जो-जो सत्कर्म किए, वे निष्फल हो गए।

    कौन चाहता है निर्वाण Story in Hindi

    भगवान् बुद्ध से एक जिज्ञासु ने पूछा, ‘मानव जीवन का लक्ष्य क्या है?’ उन्होंने बताया, ‘निर्वाण अर्थात् सभी बंधनों से मुक्ति।’ जिज्ञासु ने कहा, ‘भगवान्, आप लोगों को तरह-तरह के साधन बताते हैं।

    क्यों नहीं उन्हें सीधे-सीधे निर्वाण प्रदान करते हैं। आप तो निर्वाण की स्थिति में पहुँच चुके हैं, क्यों नहीं उसे औरों में भी बाँट देते हैं?’

    बुद्ध ने उससे कहा, ‘बिना माँगे किसी को कुछ देना ठीक नहीं है। तू ऐसा कर, गाँव जाकर लोगों से उनकी महत्त्वाकांक्षा के बारे में पूछकर आ कि वे क्या चाहते हैं?

    उस व्यक्ति ने गाँव के लोगों से उनकी महत्त्वाकांक्षा पूछी और कागज पर लिखकर बुद्ध के पास लौट आया। बुद्ध के कहने पर वह पढ़कर सुनाने लगा कि किसी को धन चाहिए, तो किसी को स्वास्थ्य।

    किसी को पुत्र चाहिए, तो किसी को सुंदर स्त्री, किसी को मान-प्रतिष्ठा चाहिए, तो किसी को दीर्घायु।

    बुद्ध चुपचाप सुनते रहे, फिर उन्होंने पूछा, ‘क्या किसी व्यक्ति ने निर्वाण की माँग की?’ उसने कहा, ‘नहीं प्रभु, एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिला, जिसने निर्वाण माँगा हो।’

    बुद्ध ने कहा, ‘कोई बात नहीं, एक तू तो है, जो निर्वाण प्राप्त करने के लिए तैयार है। चल पाँच मिनट में मन बना ले और पत्नी, पुत्रों, धन संपत्ति का मोह त्यागकर निर्वाण प्राप्ति के लिए तत्पर हो जाओ।’

    उसने सकुचाते हुए कहा, ‘मगर प्रभु, अभी तो मैंने अपने एक भी पुत्र का विवाह नहीं किया है। भला मैं निर्वाण कैसे प्राप्त कर सकता हूँ! बुद्ध मुसकराए तथा बोले, ‘अगर तू भी निर्वाण प्राप्ति के लिए तैयार नहीं है, तो भला मैं किसी को निर्वाण जबरदस्ती कैसे दूँ?’ वह व्यक्ति चुपचाप वहाँ से खिसक लिया।

    क्रोध अकेला नहीं आता Story in Hindi

    सभी धर्मों में क्रोध को सर्वनाश का प्रमुख कारण बताया गया है। महाभारत में कहा गया है कि निद्रां तंद्रा भयं क्रोधः आलस्यं दीर्घसूत्रिता। इसलिए आलस्य एवं क्रोध आदि दुर्गुणों को छोड़ने में ही कल्याण है। क्रोध के कारण मानव आवेश में आकर विवेक खो बैठता है तथा

    उसका दुष्परिणाम कई बार अत्यंत घातक होता है। आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है, ‘अहंकार आदमी को असहिष्णु बनाता है। जब आदमी अहंकार में भरकर स्वयं को ही सबकुछ मानने लगता है, तो उसकी अहंभावना क्रोध को जन्म देती है। सहनशीलता के अभ्यास से ही क्रोध पर काबू पाया जा सकता है।

    कृष्णानंदजी ‘आरोग्य’ में लिखते हैं, ‘क्रोध रूपी आग जो आप अपने शत्रुओं के लिए हृदय में जलाते हैं, वह शत्रु से अधिक आपको जलाती है। क्रोध शरीर में जहर के समान काम करता है।’

    वह क्रोध से बचने का उपाय बताते हैं, ‘जब क्रोध आने लगे, तो उसके आने के कारण के बारे में सोचिए और उस कारण को मन से निकाल दीजिए।

    शत्रुता, बुरा बरताव, घृणा, घबराहट, कठोरता, परेशानी, उद्वेग-ये सभी क्रोध के पर्याय हैं। क्रोध अकेला नहीं आता। वह दुःख और दरिद्रता को जन्म देता है ।’

    एक व्यक्ति ने क्रोध पर विजय पाने के अनुभव का कुछ ऐसे चित्रण किया है-मैंने भगवान् की प्रार्थना का सहारा लिया और स्वयं को अकिंचन मानकर तथा बड़प्पन की झूठी भावना त्यागकर विनम्रता का व्यवहार करने लगा।

    घृणा, द्वेष, आलोचना जैसे दुर्गुण स्वतः समाप्त होते चले गए। ईश्वर ने मेरी सहायता की। ‘ टॉलस्टाय ने भी कहा है, ‘क्रोध पर काबू पाने के लिए भगवान् की प्रार्थना और उसके नाम का स्मरण करना कारगर उपाय है।’

    मन की पवित्रता Story in Hindi

    किसी भी प्रकार की साधना की सफलता के लिए शास्त्रों में मन को शुद्ध-पवित्र, छल-छद्म से रहित बनाने पर जोर दिया गया है। महर्षि पतंजलि कहते हैं,

    अपने मन को किसी भी प्रकार के राग -द्वेषों से, तेरा-मेरा की भावना से मुक्तकर उसे परमात्मा की ओर उन्मुख करना चाहिए। मन को भगवान् से जोड़ने का नाम ही योग है।’

    परमहंस बाबा मुक्तानंद कहते हैं, ‘बालक का मन सर्वथा दोषरहित व निश्छल होता है। जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, कुसंग के कारण उसका मन चंचल होने लगता है तथा उसमें अनेक दोष आ जाते हैं।

    सभी दुर्गुण हमारे मन के असंयमित और चंचल होने के कारण अंदर से उपजते हैं। वे कहीं बाहर से नहीं आते, इसलिए प्रतिदिन सत्संग, स्वाध्याय, साधना की आवश्यकता होती है। निरंतर सत्संग-स्वाध्याय से मन सद्विचारों से पवित्र बना रहता है।

    बाबा आगे कहते हैं, ‘यदि मन को परमात्मा में रमाए रखने का अभ्यास हो जाए, तो वह हर पल, हर क्षण निश्छल बना रहता है। इसलिए परमात्मा को एक क्षण के लिए भी विस्मृत नहीं करना चाहिए।

    संत रविदास जूते बनाते समय भी अपने मन को एकाग्रकर भगवान् की ओर लगाए रखते थे। अपने भक्तों को उपदेश देते हुए और हाथों से कार्य करते हुए भी मन को पवित्र बनाए रखने के लिए मुँह से भगवान् का नाम जपने की प्रेरणा दिया करते थे।

    इसलिए उन्होंने चमड़ा भिगोने वाली कठौती में गंगा के दर्शन कराकर सभी को चमत्कृत कर दिया था-मन चंगा तो कठौती में गंगा।’ तुलसीदासजी ने भी लिखा-‘कर से कर्म करो विधि नाना, मन राखो जहां कृपा निधाना।’

    अहंकार की दुर्गंध Story in Hindi

    संत तुलसीदासजी ने लिखा है, ‘प्रभुता पाई काहि मद नाहीं’ अर्थात् किसी भी तरह से धन, पद, सत्ता या विद्या पाते ही आदमी के अंदर अभिमान पैदा हो जाता है कि वह सबसे बड़ा है।

    जब हम यह समझ लें कि धन-संपत्ति हमें भगवान् की कृपा से प्राप्त हुई है और हम उस संपत्ति के स्वामी नहीं हैं, तभी हम अहंकार से बच सकते हैं एक गृहस्थ व्यक्ति परिश्रम कर दुकान से इतना कमा लेता था कि अपने परिवार का पालन कर सके।

    उसके घर का दरवाजा संतों अतिथियों के लिए हमेशा खुला रहता था। एक दिन उसने किसी सौदे में लाखों रुपए कमा लिए। रुपयों के साथ-साथ अभिमान भी उसके हृदय में आ बसा। उसने घर के दरवाजे बंद कर दिए और द्वार पर एक कुत्ता रख लिया, जो आनेवाले पर भौंकता था।

    एक संत के प्रति वह अत्यंत आदर भाव रखता था। वह कभी नगर में आते, तो उसके घर पहुँचकर सत्संग-प्रवचन करते। एक वर्ष बाद भ्रमण करते हुए संत नगर में आए।

    वे उस गृहस्थ के मकान पर पहुँचे। द्वार की सांकल बजाई, तो अंदर से कुत्ते ने भौंककर उन्हें चौंका दिया। वे वापस लौटकर मंदिर में चले गए।

    सेठ को पता चला, तो वह उनके लिए भोजन व फल लेकर मंदिर पहुँचा। उस सेठ ने ज्योंही भोजन की थाली सामने रखी, संत ने कहा, ‘यह भोजन ले जा।

    पहले विनम्रता से भोजन कराता था, तो हमें अनूठी सुगंध आती थी, अब अहंकाररुपी दुर्गंध ने इस भोजन को सारहीन बना दिया है। शास्त्रों में लिखा है कि अतिथि के लिए द्वार बंद रखने वाले का भोजन विष समान त्याज्य है।

    संत के शब्दों ने सेठ का अहंकार दूर कर दिया। वह पूर्व की भांति विनम्र स्वभाव वाला बन गया।

    जीवन की सार्थकता Story in Hindi

    गुरु नानकदेवजी सत्य का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए कहा करते थे, “किव सचियारा होइये किव कुडै तुटै पालि-साधक को ऐसा सचियारा होना चाहिए कि वह हर क्षण सत्य का अनुसरण करता रहे। उसे भगवान् के नाम के सुमिरन से मन के मैल को साफ करना चाहिए ।

    वे उपदेश में कहते हैं, ‘बिना परश्रम के पाया गया धन या बेईमानी से प्राप्त पैसा विष की तरह मन व शरीर को रोगी बनाकर नाश कर डालता है। इसलिए सच्चाई से अर्जित आय से ही परिवार का पालन करने में भलाई है।

    गुरुजी आगे कहते हैं, ‘साचा साहिबु, साचु नाई भाखिया भाड अपारू’-वह स्वामी सत्य है, उसका बखान करने के भाव अनगिनत हैं, यह जान लो कि वह सत्य रूप प्रभु ही सबकुछ है। उसका ध्यान ही हमें पवित्र रख सकता है।

    सत्कर्म करने की प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं, ‘कर्म ही उत्थान-पतन का कारण है। यदि सत्कर्म करोगे, तो अच्छे कहलाओगे। दुष्कर्म करोगे, तो प्रभु व समाज-दोनों की नजरों में गिर जाओगे।

    बाह्य पवित्रता की जगह आंतरिक पवित्रता पर बल देते हुए गुरुजी कहते हैं, ‘अपवित्रता तो ज्ञान व ईश्वर के नाम से ही दूर हो सकती है। मन की अपवित्रता लोभ है।

    पराए धन और पराई स्त्री के प्रति आकर्षण आँख का अशौच है। परनिंदा सुनना, गंदी बातें सुनना कान का अशौच है। हृदय को अपवित्र विचारों से हमेशा दूर रखना चाहिए।

    कुसंग के कारण मन मलिन बनता है और जीव अकारण यमलोक का वासी बनता है। वही सच्चा भक्त है, जो निश्छल रहते हुए, सदाचार का जीवन बिताते हुए भी भगवान् के नाम का हर क्षण सुमिरन करता रहे या ध्यान लगाता रहे।

    यक्ष-युधिष्ठिर संवाद Story in Hindi

    महाभारत में यक्ष द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर से किए गए प्रश्नों तथा उनके द्वारा दिए गए लोकोपयोगी उत्तर का विस्तार से वर्णन मिलता है। यक्ष प्रश्न करते हैं, ‘कश्चधर्मः परोलोके कश्चधर्मः सदाफल:।’ यानी लोक में श्रेष्ठ धर्म क्या है, नित्य फल देने वाला धर्म क्या है?

    युधिष्ठिर बताते हैं, ‘लोक में दया श्रेष्ठ धर्म है, वेदोक्त धर्म नित्य फल प्रदान करनेवाला है। जिसका मन वश में है, वह दुःखी नहीं होता। यक्ष की एक अन्य जिज्ञासा का समाधान करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं,

    जगत तमोगुणरूपी अहंकार से ढका हुआ है। लोभ के कारण मनुष्य हितैषी मित्रों का त्याग कर देता है। आसक्ति उसके स्वर्ग की प्राप्ति में बाधक बनती है।’ धर्मराज आगे कहते हैं, ‘क्रोध दुर्जय शत्रु है और लोभ अनंत व्याधि।’

    ‘साधु-असाधु कौन है?’ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए युधिष्ठिर बताते हैं, ‘सर्वभूतः हितः साधु’ अर्थात् समस्त प्राणियों का हित करनेवाला साधु है और असाधु निर्दयः स्मृतः यानी, निर्दयी-क्रूर पुरुष असाधु है।

    ‘कौन सुखी है’- इस प्रश्न का उत्तर देते हुए वे कहते हैं, जिस पर किसी का कर्ज न हो तथा जो परदेश में न पड़ा हो, वही सुखी है। यक्ष उनसे पूछते हैं, ‘हे राजन्, कुल आचार, स्वाध्याय या शासत्र श्रवण में से किसके द्वारा ब्रह्मणत्व की पहचान होती है?’

    जवाब में युधिष्ठिर बताते हैं कि कुल, स्वाध्याय और वेद ब्राह्मणत्व के कारण नहीं हैं, ब्राह्मणत्व का आधार आचार ही है। वे कहते हैं, ‘चारों वेदों में पारंगत होने पर भी यदि आचारहीन है, तो वह ब्राह्मण शूद्र भी गया गुजरा है। जो अग्निहोत्र में तत्पर तथा जितेंद्रिय है, वही ब्राह्मण कहा जाता

    पशु-पक्षियों से सीखो Story in Hindi

    गंधर्वराज विश्ववसु की पुत्री मदालसा परम तपस्वी व विद्वान् महिला थीं। वे अपने पुत्रों को शास्त्रों के उदाहरण देकर उपदेश दिया करती थीं कि शरीर क्षणभंगुर है, आत्म तत्त्व ही सबकुछ है। सांसारिक मोहजाल में फँसकर जीवन व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए।

    मदालसा के पति राजा ऋतध्वज ने एक दिन कहा, ‘प्रिये! तुम तीन बच्चों को ज्ञानोपदेश देकर सांसारिक जगत् से विरत कर चुकी हो। चौथै पुत्र अलर्क को तो राजधर्म का उपदेश दो, जिससे वह हमारे वंश को आगे बढ़ा सके।’

    मदालसा ने पति का आदेश शिरोधार्य कर अलर्क को आदर्श राजधर्म निभाने की शिक्षा देनी शुरू कर दी। एक दिन मदालसा ने कहा, ‘पुत्र, हम पशु-पक्षियों के जीवन से बहुत कुछ सीख सकते हैं। कौवे से आलस्य रहित रहने की शिक्षा लेनी चाहिए।

    भौरों से रसग्राही और मृग से सदा चौकन्ना रहने की सीख लेनी चाहिए। जैसे सर्प फन फैलाकर, फुफकारकर अपनी रक्षा के लिए दूसरों को डराता है, उसी प्रकार राजा को शत्रु को डराकर आतंकित रखना चाहिए।

    राजा को हंस के समान नीर-क्षीर विवेक करनेवाला होना चाहिए। मुरगे से सूर्योदय से पहले उठकर कर्तव्यपालन में लग जाने का ज्ञान लेना चाहिए।

    उन्होंने अपने बेटे को सभी के साथ समान व्यवहार करने की शिक्षा देते हुए कहा, ‘जैसे चंद्रमा और सूर्य सर्वत्र समान रूप से अपनी ऊर्जा का प्रसार करते हैं,

    वैसे राजा को समस्त प्रजा के साथ समानता का व्यवहार करना चाहिए। वही राजा अमर होता है, जो प्रजा के हित व कल्याण को सर्वोपरि महत्त्व देता है।

    भूखे को भोजन Story in Hindi

    सभी शास्त्रों में कहा गया है कि किसी की सहायता करते समय उसकी जाति का विचार कदापि नहीं करना चाहिए। किसी की भूख मिटाते समय यही समझ लेना पर्याप्त है कि वह प्राणी है।

    शेख सादी ने हजरत खलील के जीवन की एक सत्य घटना का वर्णन किया है। हजरत खलील का संकल्प था कि वे बिना किसी को खिलाए खुद नहीं खाते थे।

    एक दिन उनके यहाँ कोई मेहमान नहीं आया। उन्होंने उस दिन खाना नहीं खाया। दूसरे-तीसरे दिन भी कोई मेहमान नहीं आया। चौथे दिन हजरत मेहमान की तलाश में निकल पड़े। एक बूढ़े को देखा, तो उससे खाना खाने की गुजारिश की। बूढ़े ने हामी भर दी। वे उसे घर ले आए।

    उन्होंने वृद्ध के सामने खाना परोस दिया। बूढ़े ने जैसे ही रोटी का टुकड़ा मुँह में डालना चाहा कि हजरत खलील ने कहा, ‘बड़े मियाँ, आपने खुदा का नाम नहीं लिया। हमें खाना उपलब्ध कराने के लिए खुदा का धन्यवाद करना चाहिए।

    “मैं अग्नि पूजक (पारसी) गुरु का अनुयायी हूँ। उन्होंने मुझे बूढ़े ने कहा, यह सीख कभी नहीं दी।’ यह सुनकर हजरत खलील दुःखी हुए। उन्होंने बूढ़े के सामने से खाना हटा लिया और उसे घर से निकाल दिया।

    तभी हजरत खलील को खुदा की ओर से चेतावनी देते हुए कहा गया, ‘मैंने उस बूढ़े को सौ बरस खाना और जिंदगी दी और तू जरा-सी देर भी उसे नहीं निभा सका। माना कि वह अग्नि पूजक है, पर तू इसी कारण दया का हाथ क्यों खींच लेता है?’ हजरत खलील का हृदय पश्चात्ताप से भर उठा। उन्होंने भोजन कराते समय भेदभाव न करने का संकल्प ले लिया।

    सच्ची सेवा का मर्म Story in Hindi

    सभी धर्मग्रंथों में सेवा-सहायता को सर्वोपरि धर्म बताया गया है। महर्षि वेदव्यास ने अष्टादश पुराणों में लिखा है, ‘परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनम्।’ अर्थात् परोपकार पुण्य है और दूसरों को पीडित करना पाप।

    कुछ प्राप्त करने की इच्छा से की गई सेवा को शास्त्रों में निष्फल बताया गया है। कहा गया है, ‘यदि सेवा कर्तव्यपालन या आत्मिक प्रसन्नता के लिए की जा रही है, तो वह असली सेवा है और किसी लोभ से अगर सेवा की जा रही है, तो वह महज दिखावा है। उसका फल नहीं मिलता।

    ईशोपनिषद् में कहा गया है, सभी प्राणियों में आत्मा के दर्शन का जो भाव हैं, वही सेवा का मूलाधार हैं। वही सच्चा मानव है, जो किसी भूखे प्यासे व्यक्ति को देखकर उसकी भूख-प्यास को अपनी समझकर उसे अपनी आत्मा मानकर भोजन व पानी देने को तत्पर रहता है।

    इस प्रकार की निष्काम सेवा की भावना बहुत ही पुण्यवान व्यक्ति में पैदा होती है। यहाँ तक कहा गया है-‘सेवा धर्म परम गहनो योगिनामध्यगम्यः ।

    अर्थात् सेवा धर्म इतना कठिन है कि योगियों के लिए भी अगम्य है।’ याज्ञवल्क्यजी ने लिखा है, ‘आत्मदर्शन भाव से की गई सेवा ही फलदायी होती है।

    आध्यात्मिक विभूति हनुमानप्रसाद पोद्दार भीषण ठंड के दिनों में आधी रात के समय गीता वाटिका (गोरखपुर) से चुपचाप निकलते थे तथा ठंड से सिकुड़ रहे गरीबों को कंबल-चादर ओढ़ा दिया करते थे एक बार एक पत्रकार ने कंबल ओढ़ाने का चित्र ले लिया। पोद्दारजी ने विनम्रता से उसे कहा, ‘यह चित्र अखबार में नहीं छापना, न किसी को बताना, नहीं तो मैं पुण्य की जगह पाप का भागी बनूँगा।

    वरदान भी, शाप भी Story in Hindi

    प्रकृति और मानव मन-मस्तिष्क में अनूठी क्षमता होती है। यदि मनुष्य बुद्धि विवेक से काम ले, उचित-अनुचित का विचारकर प्रकृति का उपयोग करे, तो वह सदैव वरदान के रूप में कल्याणकारी होती है।

    सद्गुण-दुर्गुण प्रत्येक व्यक्ति की अंतःचेतना में विद्यमान रहते हैं। मिट्टी में उर्वरा शक्ति होती है। उसमें जैसा बीज बोया जाता है, वैसा ही फल उगता है। ईश्वर और प्रकृति ने मनुष्य को जो शक्तियाँ प्रदान की हैं, यदि उनका सदुपयोग किया जाए, तो असीमित सुख समृद्धि से संपन्न बना जा सकता है।

    जाने-माने चिंतक पुष्कर लाल केडिया लिखते हैं, ‘पृथ्वी की भाँति मनुष्य की कर्मभूमि भी उर्वरा है। यदि उसे सदाचारों से जोतें, उत्तम विचारों से सींचें और सत्कार्यों के बीज बोएँ, तो पुण्य और कीर्ति की फसल लहलहाएगी।

    इसी तरह यदि मस्तिष्क की उर्वरता का भी हम ठीक से उपयोग करें, श्रेष्ठ चिंतन के बीज बोएँ, बुद्धि से सींचें, विवेक का उर्वरक डालें, तो नवनिर्माण की हरियाली जन्म लेगी।

    हमारे भीतर अन्नपूर्णा जैसी शक्ति है, जो हमारी आकांक्षाओं को शांत कर सफलता प्रदान कर सकती है। प्रकृति का कार्य हमें साधनों से संपन्न करना है।

    उनके उपयोग की कला, सही-गलत के उपयोग का निर्णय करने के लिए उसने हमें बुद्धि एवं विवेक नामक दो दुर्लभ विभूतियाँ प्रदान की हैं। व्यक्ति अपनी क्षमता और साधनों का समुचित उपयोगकर जीवन को श्रेष्ठ कार्यों से कृतार्थ कर सकता है।

    प्राकृतिक साधनों और मन-मस्तिष्क का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाए, वह वरदान सिद्ध होता है, लेकिन दुरुपयोग करने पर परिणाम अभिशाप के रूप में सामने आते हैं।

    सुखी दांपत्य का रहस्य Story in Hindi

    प्राचीनकाल में भी अंधविश्वासी लोग कार्यसिद्धि के लिए तंत्र-मंत्र का सहारा लेने से नहीं हिचकिचाते थे। शायद उस समय भी पति या पत्नी को वश में करने के लिए ऐसे उपायों का दावा किया जाता होगा।

    महाभारत में एक कथा आती है। एक बार श्रीकृष्ण की पत्नी सत्यभामा तथा द्रोपदी एकांत में बैठी बातें कर रही थीं। अचानक सत्यभामा ने पूछा, ‘सखी द्रोपदी, तुम्हारे पति कभी तुम पर क्रोध नहीं करते, उनमें ईर्ष्याभाव नहीं देखा जाता।

    वे सब के सब कैसे तुम्हारे वश में रहते हैं? क्या इसके लिए तुमने किसी व्रत, तप या जप का उपयोग किया है? किसी मंत्र, अंजन या जड़ी-बूटी का सहारा लिया? मुझे इसका रहस्य बताओ।

    द्रोपदी ने कहा, ‘बहन, तुम मुझसे ऐसा विचित्र प्रश्न क्यों कर रही हो? मैं तुम्हें एक रहस्य की बात बताती हूँ कि कभी भी तंत्र-मंत्र का सहारा नहीं लेना चाहिए।

    यदि पति को पता चल जाए कि मेरी पत्नी तंत्र-मंत्र का प्रयोगकर वश में करने का प्रयास कर रही है, तो वह चिंतित रहने लगता है और फिर घर की सुख-शांति ही विदा हो जाती है।

    द्रोपदी ने आगे बताया, ‘अहंकार, क्रोध व वासना से दूर रहकर मैं पांडवों की सेवा करती हूँ। कभी अप्रिय वचन नहीं बोलती और सबका मान रखती हूँ।

    मैं अतिथियों के सत्कार के लिए तत्पर रहती हूँ और पति को दान के पुण्य कार्य से रोकने का प्रयास नहीं करती। इन सब सहज कार्यों से पति सदैव प्रसन्न रहते हैं।

    द्रोपदी के मुख से ये वचन सुनकर सत्यभामा बोली, ‘बहन ये सब तो मैंने सहज जिज्ञासावश तुमसे पूछा। मेरे प्रियतम श्रीकृष्ण तो हर क्षण मुझसे बड़ा प्रेम करते हैं।

    धन की सार्थकता Story in Hindi

    धर्मशास्त्रों में कहा गया है, ‘दातव्यं भोक्तव्यं धनविषये संचयो न कर्तव्यः’ यानी धन का दान दें, सदुपयोग करें परंतु संचय न करें। पंचतंत्र में भी कहा गया है, ‘दान, भोग और नाश-धन की ये तीन गतियाँ होती हैं।

    जो न किसी को धन देता है, न उसका जीवन में सदुपयोग करता है, उसका धन उसी प्रकार नष्ट हो जाता है, जिस प्रकार मधुमक्खियों द्वारा संचित मधु को लोग ले जाते हैं।

    एक बार घनश्यामदास बिड़ला ने गांधीजी से पूछा, ‘आपकी दृष्टि में मनुष्य को किस सीमा तक धन संचय करना चाहिए?’ गांधीजी ने कहा, ‘मनुष्य को जीवन निर्वाह के लिए जितना धन आवश्यक है, उतना ही संचय करना चाहिए।

    किफायत करके उतना धन जमा करना चाहिए, जो किसी तात्कालिक संकट, बीमारी आदि में काम आ सके। आवश्यकता से ज्यादा आय होने पर उस धन को समाज व राष्ट्र के काम में लगाने में ही उसकी सार्थकता है।

    यह कभी नहीं समझना चाहिए कि धन-संपत्ति मेरी निजी है। अपने को धन-संपत्ति का मालिक समझ लेने के दुराग्रह से ही समाज में विषमता पनपती है, जो तरह-तरह की कलह का कारण बनती है।

    महर्षि अरविंद ने अपनी धर्मपत्नी मृणालिनी देवी को एक पत्र में लिखा, मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि मेरे पास जो गुण, प्रतिभा, उच्च शिक्षा और विद्या तथा धन-संपत्ति है, वह भगवान् की है।

    एक बार जब बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा, तो स्वामी विवेकानंद ने आह्वान किया, ‘तिजोरियाँ खोलकर धन पीडितों की सेवा में लगा दो। तभी धन सार्थक माना जाएगा।

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