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Top 3 Best Educational Stories in Hindi

    Top 3 Best Educational Stories in Hindi

     

    1. मित्रभेद New Educational Stories in Hindi for Students

    दक्षिण दिशा के महिलारोप्य नामक नगर में एक वैश्य रहता था, जिसका नाम था वर्धमान । वर्धमान ने धर्मयुक्त रीति से व्यापार में पर्याप्त धन पैदा किया था किंत उतने से उसे सन्तोष नहीं था।

    एक बार रात को लेटे हए उसने विचार किया कि अपनी धन-सम्पत्ति को बढ़ाने के लिए उसे कोई और उपाय करना चाहिए, क्योंकि धन ही एक ऐसी वस्तु है जिससे संसार की कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती है।

    उसने धन कमाने के उपायों पर विचार किया। धन छ: उपायों से है जाता है—भिक्षा, राजसेवा, खेती, विद्या, सूद और व्यापार से। इन छ: उपायों में उसे प्यार ही सर्वोत्तम लगा।

    यही सब सोचकर वर्धमान ने अपने नगर से बाहर जाने का संकल्प किया। उसने व्यापार योग्य माल एक बैलगाड़ी में लदवाया और अपने गुरुजनों का आशीर्वा तया परिवारजनों का स्नेह प्राप्त कर अपने संजीवक और नंदक नाम के दो बैलों को गाड़ी में जाकर मथुरा के लिए चल पड़ा।

    सुरक्षा की दृष्टि से उसने कई सेवक भी साथ ले लिए। मार्ग में चलते हुए जब वे यमुना के कछार में पहुंचे तो संजीवक नामक बैल का पैर दलदल में फंस गया। उसने बलपूर्वक आगे बढ़ाना चाहा तो बैल का पैर  टूट गया।

    बैल का पैर ठीक होने की प्रतीक्षा में वैश्य वहीं पड़ा रहा। जब उसको वहां पड़े हुए तीन दिन और तीन रात हो गए तो उसके सेवकों ने समझाया कि इस प्रकार एक बैल के लिए इस बीहड़ वन में,

    जो हिंसक सिंह और व्याघ्र जैसे भयावह प्राणियों से भरा हुआ है, पड़े रहना ठीक नहीं है। क्योंकि कहा भी गया है कि छोटी वस्तु के लिए बड़ी वस्तु की हानि नहीं करनी चाहिए। विवश होकर वैश्य को यह परामर्श स्वीकार करना पड़ा।

    उसने बैल की देखभाल के लिए दो सेवक वहीं छोड़े और शेष सेवकों के साथ एक ही बैल के सहारे आगे चल दिया।वैश्य के जाने के बाद, वन की बीहड़ता को देख दोनों सेवक भयभीत हो गए और बैल को वहीं छोड़ दोनों भाग गए।

    दो दिन उन्होंने इधर-उधर व्यतीत किए और फिर वैश्य के पास जाकर झूठ बोल दिया कि बैल तो दूसरे ही दिन मर गया और वे उसका विधिवत दाहकर्म कर आए हैं। बैल के मरने की खबर सुनकर वैश्य बहुत दुखी हुआ,

    किंतु विधि के विधान के सम्मुख वह कर भी क्या सकता था ! मन में संतोष धारण कर उसने अपनी यात्रा जारी कर दी। उधर, संजीवक को भूख-प्यास लगी तो वह कोशिश करके उठा, फिर धीरे-धीरे चलकर यमुना के तट पर पहुंच गया।

    उस तट पर घास चरने वाले पशुओं का अभाव होने के कारण वहां बहुत बड़ी मात्रा में हरी-हरी घास थी। उस हरी घास का सेवन और यमुना के शीतल जल का पान करता हुआ संजीवक कुछ ही दिनों में स्वस्थ हो गया।

    इस प्रकार अर्द्ध विहार करता हुआ वह शिवजी के नंदी बैल की तरह हृष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन जब संजीवक यमुना तट पर हरी-हरी घास चरते हुए निर्दन्द्वता से हुंकारें मार रहा था तो उसी समय पिंगलक नाम का एक सिंह वहां पानी पीने आया।

    दूर से ही उसने संजीवक की हुंकारें सुनी तो वह डर गया और झाड़ियों में जा छिपा। संकेत करके उसने साथ आए अपने सेवकों, भालू, व्याघ्र आदि से अपनी व्यूहरचना करा ली, ताकि कोई उसके पास न पहुंच सके।

    पिंगलक के साथ दो गीदड़ भी थे। उनके नाम थे, करटक और दमनक। ये दोनों गीदड़ कभी पिंगलक के मंत्री हुआ करते थे, किंतु अपनी दुष्टता के कारण उन्हें पदच्युत होना पड़ा था।

    तब से यह दोनों इसी प्रयास में रहते थे कि किस प्रकार अपने स्वामी को प्रसन्न करके खोया हुआ पद प्राप्त किया जाए। वह प्रायः शेर के पीछे-पीछे रहते थे और शेर द्वारा छोड़े शिकार को खाकर अपनी सुधा शांत करते थे।

    उस समय अपने स्वामी को जल पीने की अपेक्षा, भयभीत होकर झाड़ियों में छिपते देख उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। दमनक नामक गीदड़ अपने साथी से बोला-‘करटक भाई।

    हमारा राजा प्यासा होने पर भी यमुना तट पर न जाकर यहां झाड़ियों में छिपकर बैठ गया है, इसका क्या कारण हो सकता है ? करटक ने उत्तर दिया-‘दमनक भाई ! हमें इससे क्या?

    Educational Stories in Hindi Moral:-  बिना उद्देश्य के कौतूहलवश कोई काम नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति ऐसा करता है वह उसी प्रकार विनष्ट हो जाता है, जैसे वह कील उखाड़ने वाला बंदर विनष्ट हुआ था।

     

    1. दांत और आरंभ for Kids Educational Stories in Hindi

    वर्धमान नामक नगर में दन्तिल नाम का एक आभूषणों का व्यापारी रहता या। दन्तिल ने अपनी व्यवहारकुशलता से न केवल नगरवासियों का मन जीत लिया था, अपितु वहां के राजा को भी प्रसन्न कर रखा था।

    नगर में उसके समान कोई चतुर व्यक्ति नहीं था। वैसे तो कहावत यही है कि जो व्यक्ति राजा का हित करता है, वह समाज की दृष्टि में हीन होता है, और जो समाज का हितैषी होता है,

    राजा उससे द्वेष करता है परंतु दन्तिल इसका अपवाद था। इस प्रकार समय बीत रहा था कि दिल की कन्या का विवाह निश्चित हो गया। उस अवसर पर सेठ ने सारी प्रजा और राजकर्मचारियों को आमंत्रित कर उनका आदर-सत्कार किया।

    उस विवाह में राजा और रानी के साथ-साथ राजभवन के कर्मचारी भी आए थे। उनमें राजभवन में झाडू देने वाला गोरंभ भी था उस अवसर पर गोरंभ किसी ऐसे उच्च आसन पर बैठ गया जो उसके लिए नहीं था।

    नगर सेठ ने यह देखा तो उसे अपमानित कर वहां से निकाल दिया। गोरंभ के लिए यह अपमान असह्य हो गया। उसने मन-ही-मन निश्चय कर लिया कि वह सेठ से इस अपमान का बदला अवश्य चुकाएगा और उसे राजा की नजरों में गिराकर ही दम लेगा।

    एक दिन प्रभात के समय राजा के शयनकक्ष में झाडू लगाते समय गोरंभ यं बड़बड़ाने लगा, जैसे वह स्वयं से ही बातें कर रहा हो—’देखो दन्तिल कितना भ्रष्ट हो गया है कि अब महारानी तक का आलिंगन करने लगा है।’

    राजा ने जब यह सुना तो हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसने गोरंभ से पूछा-‘गोरंभ! क्या सचमुच दिल ने महारानी का आलिंगन किया था ?’ गोरंभ बोला-‘महाराज। मैं रात-भर जुआ खेलता रहा था, इस कारण अब मुझे बड़ी नींद आ रही है।

    उस नींद के झोंके में मैं क्या कुछ बड़बड़ा गया, मुझे स्वयं इसकी याद नहीं है।’ राजा विचार करने लगा कि गोरंभ की तरह दिल भी महल में निर्वाध रूप से आता-जाता रहता है।

    हो सकता है गोरंभ ने कभी महारानी को दन्तिल के साथ आलिंगनबद्ध होते देख लिया हो, अन्यथा उसके मुंह से ऐसी बात क्यों निकलती! वह सोचने लगा कि स्त्रियों के विषय में तो संदेह की कोई बात ही नहीं।

    वे एक ही समय में एक व्यक्ति से बातचीत करती हैं तो उसी समय उनके मन में दूसरा व्यक्ति समाया हुआ होता है। स्त्रियों के हृदय का भाव जानना बहुत कठिन है।

    इस प्रकार राजा के मन में स्त्रियों के विषय में अनेक प्रकार के भाव उठने लगे। जिसका परिणाम यह निकला कि राजा ने दन्तिल का महल में आना-जाना निषिद्ध कर दिया। राजा के इस व्यवहार से दिल को बड़ी चिन्ता हुई।

    वह विचार करने लगा तो उसने पाया कि कौए में पवित्रता, जुआरी में सत्यता, सर्प में क्षमा, स्त्रियों में काम-शांति, कातर में धैर्य, नशेबाज में विवेक और राजा में मैत्री भाव किसने देखा या सुना है।

    “मैंने इसके अथवा इसके किसी प्रिय का कभी कोई अनिष्ट तो किया नही, फिर भी यह राजा मुझ पर अप्रसन्न क्यों हुआ?’ दन्तिल राजा को प्रसन्न करने के उद्देश्य से एक बार राजभवन की ओर गया तो द्वारपाल ने उसे रोक दिया।

    गोरंभ ने जब यह देखा तो उसने कहा-‘भाई। ध्यान रखना, यह सेठ तो राजा का विशेष कृपापात्र है। कहीं इसे नाराज करके तुम भी मेरी तरह ही धक्के मारकर न निकाल दिए जाओ।’ दन्तिल ने सुना तो उसका माथा ठनका।

    उसे विश्वास हो गया कि राजा को गोरंभ ने ही भड़काया है। वह सोचने लगा कि राजा की सेवा में नियुक्त व्यक्ति चाहे कितना ही कुलहीन, मूर्ख और राजा द्वारा असम्मानित क्यों न हो, लोक में उसका आदर होता है।

    उसे गोरंभ का अपने द्वारा किया गया अपमान याद हो आया। दन्तिल राजभवन के द्वार से वापस आ गया रात को उसने गोरंभ को आदरपूर्वक अपने घर बुलवाया और उसका खूब स्वागत-सत्कार किया।

    विदा करते समय उससे अपने पिछले व्यवहार की क्षमा मांगी तो गोरंभ बोला – ‘आप चिन्ता न कीजिए सेठ। राजा किस प्रकार आपको अनुगृहीत करता है, यह आप अब मेरी बुद्धि के चमत्कार से देखें।

    किसी ने ठीक ही कहा है कि तराजू की डंडी की भांति ही कर व्यक्तियों का स्वभाव होता है। वे तनिक-से भार से कभी ऊपर हो जाते हैं तो कभी नीचे।

    इस प्रकार दूसरे दिन जब गोरंभ प्रातःकाल के समय राजा के शयनकक्ष में सफाई करने गया तो पहले की भांति ही बड़बड़ाने लगा—’हमारे महाराज भी बड़े विचित्र हैं, मलत्याग करते वक्त भी ककड़ी खाते रहते हैं।’

    राजा ने सुना तो वह गुस्से से बोला-‘आरंभ ! यह क्या बकवास कर रहा है ? तूने कभी मुझको ऐसा करते देखा था ?’ गोरंभ ने फिर उसी प्रकार कह दिया कि वह रात-भर जुआ खेलता, जागता रहा है इसलिए नींद में वह क्या कुछ बड़बड़ा गया, उसे कुछ मालूम नहीं।

    तब राजा ने विचार किया कि उसने कभी ऐसा कृत्य नहीं किया फिर भी इस मूर्ख ने इस प्रकार की बात मुख से निकाली, तब निश्चय ही दन्तिल के बारे में भी इसने इसी प्रकार कहा होगा यह विचार आते ही उसको पश्चात्ताप होने लगा।

    उसने दन्तिल को सम्मानपूर्वक राजभवन में बुलवाया और उसका खूब स्वागत-सत्कार किया। दन्तिल का राजभवन में पुनः आगमन होने लगा।

    यह कथा सुनाकर दमनक ने संजीवक से कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि गर्व के कारण जो छोटे-बड़े सभी राजसेवकों का सत्कार नहीं करता उसे दन्तिल की तरह पदच्युत होकर अपमान सहन करना पड़ता है।

    संजीवक बोला-‘मित्र ! तुम ठीक कहते हो। मैं तुम्हारे कथनानुसार ही कार्य करूंगा।’ के तदन्तर दमनक संजीवक को लेकर पिंगलक के समक्ष उपस्थित हुआ और उसे प्रणाम करके कहने लगा-‘महाराज !

    संजीवक आपकी सेवा में उपस्थित है। अब आप जो उचित समझें, कीजिए।’ संजीवक ने भी पिंगलक को प्रणाम किया और उसके सम्मुख खड़ा हो गया। पिंगलक ने उसे अपने समीप बैठाते हुए कहा-‘कहिए मित्र! आप कुशल सेतो हैं?

    आप कहां से पधारे हैं ? पिंगलक से आश्वासन पाकर संजीवक ने अपनी आद्योपान्त तथा उसको सना दी। पिंगलक ने उसकी कथा सुनकर उसे आश्वस्त कर दिया।

    फिर अपना राजकाज दमनक और करटक के जिम्मे सौंपकर स्वयं संजीवक के साथ रहकर मौजमस्ती करने लगा। इसका परिणाम यह निकला कि सिंह शिकार करने में लापरवाही बरतने लगा।

    वह अपनी आवश्यकता-भर के लिए शिकार करता। उस पर आश्रित मांसभोजी प्राणी भूखे रहने लगे जो उनके लिए एक चिन्ता का विषय बन गया कहते हैं कि जो राजा अपने सेवकों को वेतन देने में कभी देर नहीं करता,

    उसके सेवक डांटने-फटकारने पर भी कभी उसको छोड़कर नहीं जाते। किंतु पिंगलक तो इसके विपरीत आचरण कर रहा था। अतः भूख से पीड़ित दमनक और करटक ने परस्पर विचार-विमर्श किया।

    वे सोचने लगे कि जब भगवान शंकर के गले में लिपटा सर्प गणेशजी के वाहन चूहे को खाना चाहता है और जब सर्प मारकर खाने वाले मोर को पार्वती का वाहन सिंह खाने की इच्छा करता है तो फिर वे ही यह अहिंसा का नाटक क्यों कर रहे हैं ?

    दमनक कहने लगा—’भाई करटक ! राजा की दृष्टि में हम तो कुछ रहे ही नहीं। उसके लिए अब बस संजीवक ही है। भोजन न मिलने के कारण शेष सेवक तो राजा का साथ छोड़ ही चुके हैं। मैं समझता हूं, हमें राजा को समझाना चाहिए।

    इस समय यही हमारा कर्तव्य है।’ करटक ने उसकी बात पर सहमत होते हुए कहा-‘इस हरी घास चरने वाले वैल को तुम ही राजा के पास लाए हो, अब तुम्हीं इस समस्या को सुलझाओ।’ ‘ठीक कहते हो भाई।’

    दमनक बोला—’यह मेरा ही दोष है। हमारी स्थिति तो अब वैसी ही है जैसे मेढ़ों के युद्ध में श्रृगालों की। दूसरों का काम करने में दूती की और आषाढ़ मूर्ति की जो हालत हुई थी, लगभग वैसी ही हालत इस वक्त हमारी है।

     

    1. कील उखाड़ने वाला बंदर Hindi Interesting Educational Stories

    किसी वैश्य ने नगर की सीमा के पास देव-मंदिर बनवाना आरंभ किया। उसमें कार्य करने वाले मजदूर तथा कारीगर दोपहर में भोजन करने के लिए नगर में चले जाया करते थे।

    एक दिन अकस्मात वाहन का एक झुंड इधर-उधर घूमता हुआ उस वन में आ पहुंचा। उन कारीगरों में से किसी ने एक आधे चीरे हुए अर्जुन वृक्ष के एक लट्ठे में बीचों-बीच एक कील गाड़ कर छोड़ दी थी।

    वानरों ने वहां पहुंचकर वृक्षों, मकानों, लकड़ियों एवं लट्ठों पर चढ़कर स्वच्छंद रूप से खेलना आरंभ कर दिया। उन वाहनों में एक वानर कौतूहलवश उस आधे चीरे लट्ठे (शहतीर) पर आ बैठा और उसमें गड़ी हुई कील को उखाड़ने लगा।

    कील के निकलते ही लठे के मध्य में लटका हुआ उसका अंडकोष दब गया। कष्ट के कारण वानर चीखने-चिल्लाने लगा। अंडकोष निकला नहीं, और वानर चीखते-चिल्लाते हुए वहीं तड़प-तड़पकर मर गया।

    यह कहानी सुनाकर करटक ने आगे कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि बिना उद्देश्य के सिर्फ कौतूहलवश हमें कोई काम नहीं करना चाहिए।

    राजा के भोजन से अवशिष्ट भोजन जब हमें खाने-भर को मिल ही जाता है तो व्यर्थ के प्रपंच में पड़ने की आवश्यकता ही क्या है?’ करटक की बात सुनकर दमनक ने कहा-जाना पड़ता है, तुम सिर्फ भोजन के लिए ही जीते हो मित्र ।

    यह बात ठीक नहीं है, क्योंकि बुद्धिमान व्यक्ति मित्रों के उपकारार्थ और शत्रुओं के अपकारार्थ राजा का आश्रय ग्रहण करते हैं। अपना पेट तो हर कोई भर लेता है, परंतु जीने का अर्थ पेट भरना मात्र ही तो नहीं है।

    बिना किसी गुण एवं प्रशंसा के कौआ भी बहुत दिन जीता है और अपना पेट भी भरता रहता है। तो क्या उसके जीवन को जीवन कहा जा सकता है ? जिस व्यक्ति ने अपने द्वारा या दूसरों के स्वजनों द्वारा उपकार नहीं किया,

    दोनों के प्रति दया भाव नहीं दिखाया और सेवकों के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं किया, उस व्यक्ति के जीने का विश्व को क्या लाभ हुआ? कौए की तरह केवल पेट भरने के लिए जीवित रहना व्यर्थ है।’

    दमनक की बात सुनकर करटक ने कहा-‘जब हमारे राजा ने हमें पदच्युत कर दिया है तो हमें राजा के विषय में जानने की चेट करने से क्या लाभ है? कहा भी गया है कि जो मूर्ख,

    अनाधिकारी एवं पदच्युत होते हुए भी राजा के समक्ष कुछ कहता है, वह न केवल अपमानित ही होता है, अपितु उपहास का पात्र भी बनता है।

    मनुष्य को अपनी वाणी का प्रयोग उसी स्थान पर करना चाहिए जहां उसके प्रयोग से कुछ लाभ होता हो।’ करटक के उक्त वाक्यों को सुनकर दमनक ने कहा-‘नहीं भाई !

    यह मत कहो, क्योंकि राजा की सेवा में तत्पर रहने वाला अप्रधान व्यक्ति भी प्रधान बन जाता है और राजा की सेवा से विमुख होने पर प्रधान भी अप्रधान हो जाता है।

    जो सेवक राजा के कुपित तथा प्रसन्न रहने के मूल तत्त्वों को जानकर उनके अनुसार ही आचरण करता है, वह बाद में अवसर आने पर असन्तुष्ट राजा को वशीभूत कर ही लेता है विद्वान, महत्त्वाकांक्षी,

    शिल्यादि कलाओं में निपुण, वीर तथा कुशल व्यक्तियों के लिए राजा को छोड़कर कोई अन्य आश्रय स्थान नहीं होता राजा के अतिरिक्त दूसरा कोई भी व्यक्ति इनका उचित सम्मान नहीं कर सकता।’

    दमनक की बात पर खीझकर करटक ने पूछा-‘आखिर तुम कहना क्या चाहते हो मित्र? ‘हमारा स्वामी पिंगलक आज भयभीत है।’ दमनक ने कहा-‘मैं उसके पास जाकर उसके भय का सही कारण जानना चाहता हूं।

    कारण मालूम हो जाने पर मैं साम-दाम-दंड-भेद में से किसी का भी सहारा लेकर अपना काम बनाने की चेष्टा करूंगा।’ करटक ने पूछा-‘तुम कैसे कह सकते हो कि हमारा राजा भयभीत है?

    किसी अन्य कारण से भी तो वह झाड़ी में छिप सकता है। हो सकता है किसी शिकार पर घात लगाने के उद्देश्य से वह झाड़ियों में जा छिपा हो ?’ ‘यह जानना तो बहुत सरल है मित्र ।’

    दमनक बोला—’व्यक्ति के मुख के भाव, उसकी आंखें, उसकी चाल-ढाल बता देती है कि वह भयभीत है अथवा सहज। पिंगलक की चेष्टाओं से मुझे पता चल गया है कि वह किसी से भयभीत है।

    मैं उसके पास जाकर उसके भय का कारण समझेंगा और अपनी बुद्धि द्वारा उसे निर्भय बनाकर अपने वश में करूंगा। इस प्रकार उसे अपने अनुकूल करके पुनः मंत्री पद प्राप्त करूंगा।’

    करटक ने पूछा-‘आप वहां जाकर पहले क्या कहेंगे, जरा यह भी तो बताइए।’ ‘इस विषय में पहले से वाक्यों का निर्धारण कठिन है।’ दमनक ने उत्तर दिया—’वहां की परिस्थिति देखकर मेरी बुद्धि स्वयं ही कोई मार्ग बना लेगी।’

    करटक कहने लगा-‘जिस प्रकार भीषण पाषाण, हिंसक सिंह, व्याघ्र और विषधर स्पों आदि से घिरे रहने के कारण पर्वत दुरारोह होते हैं उसी प्रकार शठों, धूर्तों और दुष्टों से घिरे रहने के कारण राजा भी आसानी से प्रसन्न नहीं किए जा सकते।

    राजा भी कुटिल सर्पो की भांति ही होते हैं, जो केवल मंत्रों द्वारा ही साधे जा सकते हैं, उनके समान ही वे दुमुंहे होते हैं।’ इस प्रकार करटक ने अपनी बुद्धि के अनुसार अनेक उदाहरण देकर उसे समझाया तो दमनक कहने लगा-

    ‘यह तो तुम ठीक ही कहते हो किंतु जिस व्यक्ति का जैसा स्वभाव होता है, उसे उसी प्रकार के आचरण से वशीभूत भी किया जा सकता है। बस हमें तो स्वामी को उसके मनोनुकूल आचरण से प्रभावित करना होगा।

    राजा तो राजा, अनुकूल आचरण करने से तो राक्षस भी वश में हो जाया करते हैं।’ दमनक की बात सुनकर करटक बोला—’यदि तुम जाना ही चाहते हो तो जाओ। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करेगा लेकिन वहां बहुत सावधान रहना,

    क्योंकि तुम्हारे भाग्य पर ही मेरा भाग्य भी निर्भर करता है। करटक से स्वीकृति मिलने पर दमनक उससे विदा लेकर पिंगलक की ओर चल दिया।

    पिंगलक ने जब दमनक को आते देखा तो विपत्ति में पड़ा होने के कारण उसने अपने द्वारपाल से कहा कि वह उसे आने से रोके नहीं, उसे मेरे पास आने दे।

    इस प्रकार जब दमनक आया तो उसको भीतर पिंगलक के पास पहुंचने में कोई बाधा नहीं हुई। राजा के समीप पहुंचकर उसने यथाविधि प्रणाम किया और राजा के संकेत पर यथास्थान बैठ गया।

    उसके बैठ जाने पर पिंगलक ने पूछा-‘कुशलता तो है, आज बहुत दिन बाद दिखाई दिए हो ? किधर से आ रहे हो ? क्या कोई विशेष प्रयोजन है ?’ दमनक बोला-‘विशेष प्रयोजन तो कोई नहीं राजन,

    फिर भी सेवक को स्वामी के हित की बात कहने के लिए स्वयं आना चाहिए। राजा के पास उत्तम, मध्यम, अधम सभी प्रकार के सेवक होते हैं। राजा के लिए सभी का प्रयोजन है समय पर तिनके का सहारा भी लेना पड़ता है,

    सेवक की तो बात ही क्या है ? आपने बहुत दिन बाद आने का जो उलाहना दिया है, उसका भी कारण है जहां कांच की जगह मणि, और मणि के स्थान पर कांच जड़ा जाए,

    वहां अच्छे सेवक नहीं ठहरते। जहां पारखी नहीं, वहां रलों का मूल्य नहीं लगता। स्वामी और सेवक परस्पर आश्रयी होते हैं। उन्हें एक-दूसरे का सम्मान करना चाहिए राजा तो संतुष्ट होकर सेवक को केवल सम्मान देते हैं,

    किंतु सेवक तो संतुष्ट होकर राजा के लिए अपने प्राणों की बलि तक दे देता है।’ दमनक की बातें सुनकर पिंगलक अपेक्षाकृत नम्र स्वर में बोला-‘तुम्हारी बातें ठीक हैं। परंतु इन बातों के कहने का तुम्हारा प्रयोजन क्या है,

    यह स्पष्ट बताओ।’ मन-ही-मन प्रसन्न होता हुआ दमनक बोला-‘राजन, मुझे आपसे एक आवश्यक निवेदन करना है।’ ‘ठीक है, निर्भय होकर बताओ।’ पिंगलक ने उसे आश्वस्त किया।

    कनखियों उसे पिंगलक के पहरेदारों की ओर देखते हुए दमनक बोला-राजन ! आचार्य बृहस्पति ने कहा है कि राजा से कोई छोटे-से-छोटा कार्य भी हो तो जनसमुदाय में नहीं कहना चाहिए।

    अतः आप मेरी बात एकान्त में सुने तो उपयुक्त होगा। पिंगलक ने अपने पार्षदों की ओर देखा तो उसका मंतव्य समझकर वे सब वहां से एक ओर खिसक गए। उनके चले जाने के बाद दमनक राजा के पास पहुंचा और धीरे से पूछा-‘राजन !

    आप जल पीने के लिए यहां आए थे, किंतु अपनी प्यास बुझाए बिना ही यहां आकर क्यों बैठ गए हैं ? पिंगलक ने अपने भय को छिपाते हुए कहा—’कोई विशेष बात नहीं है, बस कुछ देर विश्राम करने के लिए हम लोग यहां बैठ गए हैं।’

    ठीक है महाराज ।’ दमनक बोला-‘कोई गोपनीय बात है तो रहने दीजिए। क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें अपनी पली से भी गुप्त रखना पड़ता है।’ पिगलक दमनक की बातों से प्रभावित हो चुका था।

    उसे लगा कि दमनक बहुत बुद्धिमान लगता है, अतः उसे अपने भय का कारण बता देना चाहिए। अत: उसने कहा-‘दमनक ! दूर से यह जो गर्जना सुनाई पड़ रही है, उसे तुम सुन रहे हो?’ ‘सुन रहा हूं राजन।’

    ‘बस, इसी के कारण मैं इस वन को छोड़कर किसी अन्य वन में जाने की सोच रहा हूं।’ ‘पर क्यों राजन ? पिंगलक बोला-‘जान पड़ता है, आज इस वन में कोई अत्यंत भयावह जन्तु आ गया है,

    जिसकी यह गर्जन है जिसकी गर्जन ही इतनी भयंकर हो, वह स्वयं तो न जाने कितना भयंकर होगा।’ दमनक को अवसर मिल गया। वह बोला-‘महाराज ! गर्जन मात्र से ही आपका भयभीत होना उचित नहीं है।

    क्योंकि जैसे जल के प्रवाह से पुल टूट जाता है, असंरक्षण के कारण गुप्त मंत्र (परामर्श आदि) नष्ट हो जाता है, दुर्व्यवहार से स्नेह (मैत्री प्रेम) टूट जाता है, उसी प्रकार जो व्यक्ति घबराकर अपना साहस छोड़ देता है,

    उसे चतुर होने पर भी कायर कहा जाता है। पूर्वजों द्वारा अर्जित इस वन को सहसा केवल अनजानी गर्जना सुनकर छोड़ देना आपके लिए उचित नहीं होगा। ऊंचे स्वर अनेक प्रकार के होते है।

    भेरी, मृदंग, पटह, शंख, काहल आदि अनेक वाघ है जिनकी आवाज बहुत ऊची होती है। उनसे कौन डरता है? कहते हैं. गोमायु नामक एक गीदड़ ने किसी वस्तु को देखकर पहले यह समझा था कि वह रक्त और मांस से परिपूर्ण होगी, किंतु बाद में जब उसने अंदर प्रविध होकर देखा तो केवल चर्म और ईंधन के अतिरिक्त उसे कुछ नहीं मिला।

     

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