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Collections of Subhadra Kumari Chauhan Poems in Hindi

    Collections of Subhadra Kumari Chauhan Poems in Hindi

    Poem 1 – झाँसी की रानी कविता –

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता
    सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,

    बूढ़े भारत में भी आई फिर से नयी जवानी थी,

    गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,

    दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी।

    चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,

    लक्ष्मीबाई नाम, पिता की वह संतान अकेली थी,

    नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,

    बरछी, ढाल, कृपाण, कटारी उसकी यही सहेली थी।

    वीर शिवाजी की गाथायें उसको याद ज़बानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    लक्ष्मी थी या दुर्गा थी वह स्वयं वीरता की अवतार,

    देख मराठे पुलकित होते उसकी तलवारों के वार,

    नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब शिकार,

    सैन्य घेरना, दुर्ग तोड़ना ये थे उसके प्रिय खिलवाड़।

    महाराष्ट्र-कुल-देवी उसकी भी आराध्य भवानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    हुई वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,

    ब्याह हुआ रानी बन आई लक्ष्मीबाई झाँसी में,

    राजमहल में बजी बधाई खुशियाँ छाई झाँसी में,

    सुघट बुंदेलों की विरुदावलि-सी वह आयी थी झांसी में।

    चित्रा ने अर्जुन को पाया, शिव को मिली भवानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    उदित हुआ सौभाग्य, मुदित महलों में उजियारी छाई,

    किंतु कालगति चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,

    तीर चलाने वाले कर में उसे चूड़ियाँ कब भाई,

    रानी विधवा हुई, हाय! विधि को भी नहीं दया आई।

    निसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,

    राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,

    फ़ौरन फौजें भेज दुर्ग पर अपना झंडा फहराया,

    लावारिस का वारिस बनकर ब्रिटिश राज्य झाँसी आया।

    अश्रुपूर्ण रानी ने देखा झाँसी हुई बिरानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    अनुनय विनय नहीं सुनती है, विकट शासकों की माया,

    व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,

    डलहौज़ी ने पैर पसारे, अब तो पलट गई काया,

    राजाओं नवाबों को भी उसने पैरों ठुकराया।

    रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    छिनी राजधानी दिल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,

    कैद पेशवा था बिठूर में, हुआ नागपुर का भी घात,

    उदयपुर, तंजौर, सतारा,कर्नाटक की कौन बिसात?

    जब कि सिंध, पंजाब ब्रह्म पर अभी हुआ था वज्र-निपात।

    बंगाल, मद्रास आदि की भी तो वही कहानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    रानी रोयीं रनिवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,

    उनके गहने कपड़े बिकते थे कलकत्ते के बाज़ार,

    सरे आम नीलाम छापते थे अंग्रेज़ों के अखबार,

    ‘नागपुर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलखा हार’।

    यों परदे की इज़्ज़त परदेशी के हाथ बिकानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    कुटियों में भी विषम वेदना, महलों में आहत अपमान,

    वीर सैनिकों के मन में था अपने पुरखों का अभिमान,

    नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,

    बहिन छबीली ने रण-चण्डी का कर दिया प्रकट आहवान।

    हुआ यज्ञ प्रारम्भ उन्हें तो सोई ज्योति जगानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    महलों ने दी आग, झोपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,

    यह स्वतंत्रता की चिनगारी अंतरतम से आई थी,

    झाँसी चेती, दिल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,

    मेरठ, कानपुर,पटना ने भारी धूम मचाई थी,

    जबलपुर, कोल्हापुर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    इस स्वतंत्रता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,

    नाना धुंधूपंत, ताँतिया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,

    अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरसिंह सैनिक अभिराम,

    भारत के इतिहास गगन में अमर रहेंगे जिनके नाम।

    लेकिन आज जुर्म कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

     

    इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,

    जहाँ खड़ी है लक्ष्मीबाई मर्द बनी मर्दानों में,

    लेफ्टिनेंट वाकर आ पहुँचा, आगे बढ़ा जवानों में,

    रानी ने तलवार खींच ली, हुआ द्वंद असमानों में।

    ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब हैरानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील निरंतर पार,

    घोड़ा थक कर गिरा भूमि पर गया स्वर्ग तत्काल सिधार,

    यमुना तट पर अंग्रेज़ों ने फिर खाई रानी से हार,

    विजयी रानी आगे चल दी, किया ग्वालियर पर अधिकार।

    अंग्रेज़ों के मित्र सिंधिया ने छोड़ी राजधानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    विजय मिली, पर अंग्रेज़ों की फिर सेना घिर आई थी,

    अब के जनरल स्मिथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,

    काना और मंदरा सखियाँ रानी के संग आई थी,

    युद्ध श्रेत्र में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।

    पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय ! घिरी अब रानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,

    किन्तु सामने नाला आया, था वह संकट विषम अपार,

    घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये सवार,

    रानी एक, शत्रु बहुतेरे, होने लगे वार-पर-वार।

    घायल होकर गिरी सिंहनी उसे वीर गति पानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

     

    रानी गई सिधार चिता अब उसकी दिव्य सवारी थी,

    मिला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अधिकारी थी,

    अभी उम्र कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,

    हमको जीवित करने आयी बन स्वतंत्रता-नारी थी,

    दिखा गई पथ, सिखा गई हमको जो सीख सिखानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥

    जाओ रानी याद रखेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी,

    यह तेरा बलिदान जगावेगा स्वतंत्रता अविनासी,

    होवे चुप इतिहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,

    हो मदमाती विजय, मिटा दे गोलों से चाहे झाँसी।

    तेरा स्मारक तू ही होगी, तू खुद अमिट निशानी थी,

    बुंदेले हरबोलों के मुँह हमने सुनी कहानी थी,

    खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी॥


    Poem 2 – इसका रोना – सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    तुम कहते हो – मुझको इसका रोना नहीं सुहाता है |
    मैं कहती हूँ – इस रोने से अनुपम सुख छा जाता है ||

    सच कहती हूँ, इस रोने की छवि को जरा निहारोगे |

    बड़ी-बड़ी आँसू की बूँदों पर मुक्तावली वारोगे || 1 ||

    ये नन्हे से होंठ और यह लम्बी-सी सिसकी देखो |

    यह छोटा सा गला और यह गहरी-सी हिचकी देखो ||

    कैसी करुणा-जनक दृष्टि है, हृदय उमड़ कर आया है |

    छिपे हुए आत्मीय भाव को यह उभार कर लाया है || 2 ||

    हँसी बाहरी, चहल-पहल को ही बहुधा दरसाती है |

    पर रोने में अंतर तम तक की हलचल मच जाती है ||

    जिससे सोई हुई आत्मा जागती है, अकुलाती है |

    छुटे हुए किसी साथी को अपने पास बुलाती है || 3 ||

    मैं सुनती हूँ कोई मेरा मुझको अहा ! बुलाता है |

    जिसकी करुणापूर्ण चीख से मेरा केवल नाता है ||

    मेरे ऊपर वह निर्भर है खाने, पीने, सोने में |

    जीवन की प्रत्येक क्रिया में, हँसने में ज्यों रोने में || 4 ||

    मैं हूँ उसकी प्रकृति संगिनी उसकी जन्म-प्रदाता हूँ |

    वह मेरी प्यारी बिटिया है मैं ही उसकी प्यारी माता हूँ ||

    तुमको सुन कर चिढ़ आती है मुझ को होता है अभिमान |

    जैसे भक्तों की पुकार सुन गर्वित होते हैं भगवान ||


    Poem 3 – खिलौनेवाला – सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    वह देखो माँ आज
    खिलौनेवाला फिर से आया है।

    कई तरह के सुंदर-सुंदर

    नए खिलौने लाया है।

    हरा-हरा तोता पिंजड़े में

    गेंद एक पैसे वाली

    छोटी सी मोटर गाड़ी है

    सर-सर-सर चलने वाली।

    सीटी भी है कई तरह की

    कई तरह के सुंदर खेल

    चाभी भर देने से भक-भक

    करती चलने वाली रेल।

    गुड़िया भी है बहुत भली-सी

    पहने कानों में बाली

    छोटा-सा ‘टी सेट’ है

    छोटे-छोटे हैं लोटा थाली।

    छोटे-छोटे धनुष-बाण हैं

    हैं छोटी-छोटी तलवार

    नए खिलौने ले लो भैया

    ज़ोर-ज़ोर वह रहा पुकार।

    मुन्‍नू ने गुड़िया ले ली है

    मोहन ने मोटर गाड़ी

    मचल-मचल सरला करती है

    माँ ने लेने को साड़ी

    कभी खिलौनेवाला भी माँ

    क्‍या साड़ी ले आता है।

    साड़ी तो वह कपड़े वाला

    कभी-कभी दे जाता है

    अम्‍मा तुमने तो लाकर के

    मुझे दे दिए पैसे चार

    कौन खिलौने लेता हूँ मैं

    तुम भी मन में करो विचार।

    तुम सोचोगी मैं ले लूँगा।

    तोता, बिल्‍ली, मोटर, रेल

    पर माँ, यह मैं कभी न लूँगा

    ये तो हैं बच्‍चों के खेल।

    मैं तो तलवार खरीदूँगा माँ

    या मैं लूँगा तीर-कमान

    जंगल में जा, किसी ताड़का

    को मारुँगा राम समान।

    तपसी यज्ञ करेंगे, असुरों-

    को मैं मार भगाऊँगा

    यों ही कुछ दिन करते-करते

    रामचंद्र मैं बन जाऊँगा।

    यही रहूँगा कौशल्‍या मैं

    तुमको यही बनाऊँगा।

    तुम कह दोगी वन जाने को

    हँसते-हँसते जाऊँगा।

    पर माँ, बिना तुम्‍हारे वन में

    मैं कैसे रह पाऊँगा।

    दिन भर घूमूँगा जंगल में

    लौट कहाँ पर आऊँगा।

    किससे लूँगा पैसे, रूठूँगा

    तो कौन मना लेगा

    कौन प्‍यार से बिठा गोद में

    मनचाही चींजे़ देगा।

    Poem 4 – जीवन-फूल –  सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    मेरे भोले मूर्ख हृदय ने

    कभी न इस पर किया विचार।

    विधि ने लिखी भाल पर मेरे

    सुख की घड़ियाँ दो ही चार॥

    छलती रही सदा ही

    मृगतृष्णा सी आशा मतवाली।

    सदा लुभाया जीवन साकी ने

    दिखला रीती प्याली॥

    मेरी कलित कामनाओं की

    ललित लालसाओं की धूल।

    आँखों के आगे उड़-उड़ करती है

    व्यथित हृदय में शूल॥

    उन चरणों की भक्ति-भावना

    मेरे लिए हुई अपराध।

    कभी न पूरी हुई अभागे

    जीवन की भोली सी साध॥

    मेरी एक-एक अभिलाषा

    का कैसा ह्रास हुआ।

    मेरे प्रखर पवित्र प्रेम का

    किस प्रकार उपहास हुआ॥

    मुझे न दुख है

    जो कुछ होता हो उसको हो जाने दो।

    निठुर निराशा के झोंकों को

    मनमानी कर जाने दो॥

    हे विधि इतनी दया दिखाना

    मेरी इच्छा के अनुकूल।

    उनके ही चरणों पर

    बिखरा देना मेरा जीवन-फूल॥


    Poem 5 – झिलमिल तारे – सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    कर रहे प्रतीक्षा किसकी हैं

    झिलमिल-झिलमिल तारे?

    धीमे प्रकाश में कैसे तुम

    चमक रहे मन मारे।।

    अपलक आँखों से कह दो

    किस ओर निहारा करते?

    किस प्रेयसि पर तुम अपनी

    मुक्तावलि वारा करते?

    करते हो अमिट प्रतीक्षा,

    तुम कभी न विचलित होते।

    नीरव रजनी अंचल में

    तुम कभी न छिप कर सोते।।

    जब निशा प्रिया से मिलने,

    दिनकर निवेश में जाते।

    नभ के सूने आँगन में

    तुम धीरे-धीरे आते।।

    विधुरा से कह दो मन की,

    लज्जा की जाली खोलो।

    क्या तुम भी विरह विकल हो,

    हे तारे कुछ तो बोलो।

    मैं भी वियोगिनी मुझसे

    फिर कैसी लज्जा प्यारे?

    कह दो अपनी बीती को

    हे झिलमिल-झिलमिल तारे!

    Poem 6 – ठुकरा दो या प्यार करो – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    देव! तुम्हारे कई उपासक कई ढंग से आते हैं।

    सेवा में बहुमुल्य भेंट वे कई रंग की लाते हैं॥

    धूमधाम से साजबाज से वे मंदिर में आते हैं।

    मुक्तामणि बहुमुल्य वस्तुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं॥

    मैं ही हूँ गरीबिनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी।

    फिर भी साहस कर मंदिर में पूजा करने को आयी॥

    धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का श्रृंगार नहीं।

    हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥

    कैसे करूँ कीर्तन, मेरे स्वर में है माधुर्य नहीं।

    मन का भाव प्रकट करने को वाणी में चातुर्य नहीं॥

    नहीं दान है, नहीं दक्षिणा खाली हाथ चली आयी।

    पूजा की विधि नहीं जानती, फिर भी नाथ! चली आयी॥

    पूजा और पुजापा प्रभुवर! इसी पुजारिन को समझो।

    दान-दक्षिणा और निछावर इसी भिखारिन को समझो॥

    मैं उनमत्त प्रेम की प्यासी हृदय दिखाने आयी हूँ।

    जो कुछ है, वह यही पास है, इसे चढ़ाने आयी हूँ॥

    चरणों पर अर्पित है, इसको चाहो तो स्वीकार करो।

    यह तो वस्तु तुम्हारी ही है ठुकरा दो या प्यार करो॥

    Poem 7 – कोयल – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    देखो कोयल काली है पर

    मीठी है इसकी बोली

    इसने ही तो कूक कूक कर

    आमों में मिश्री घोली

    कोयल कोयल सच बतलाना

    क्या संदेसा लायी हो

    बहुत दिनों के बाद आज फिर

    इस डाली पर आई हो

    क्या गाती हो किसे बुलाती

    बतला दो कोयल रानी

    प्यासी धरती देख मांगती

    हो क्या मेघों से पानी?

    कोयल यह मिठास क्या तुमने

    अपनी माँ से पायी है?

    माँ ने ही क्या तुमको मीठी

    बोली यह सिखलायी है?

    डाल डाल पर उड़ना गाना

    जिसने तुम्हें सिखाया है

    सबसे मीठे मीठे बोलो

    यह भी तुम्हें बताया है

    बहुत भली हो तुमने माँ की

    बात सदा ही है मानी

    इसीलिये तो तुम कहलाती

    हो सब चिड़ियों की रानी

    Poem 8 – नीम – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    सब दुखहरन सुखकर परम हे नीम! जब देखूँ तुझे।

    तुहि जानकर अति लाभकारी हर्ष होता है मुझे॥

    ये लहलही पत्तियाँ हरी, शीतल पवन बरसा रहीं।

    निज मंद मीठी वायु से सब जीव को हरषा रहीं॥

    हे नीम! यद्यपि तू कड़ू, नहिं रंच-मात्र मिठास है।

    उपकार करना दूसरों का, गुण तिहारे पास है॥

    नहिं रंच-मात्र सुवास है, नहिं फूलती सुंदर कली।

    कड़ुवे फलों अरु फूल में तू सर्वदा फूली-फली॥

    तू सर्वगुणसंपन्न है, तू जीव-हितकारी बड़ी।

    तू दु:खहारी है प्रिये! तू लाभकारी है बड़ी॥

    है कौन ऐसा घर यहाँ जहाँ काम तेरा नहिं पड़ा।

    ये जन तिहारे ही शरण हे नीम! आते हैं सदा॥

    तेरी कृपा से सुख सहित आनंद पाते सर्वदा॥

    तू रोगमुक्त अनेक जन को सर्वदा करती रहै।

    इस भांति से उपकार तू हर एक का करती रहै॥

    प्रार्थना हरि से करूँ, हिय में सदा यह आस हो।

    जब तक रहें नभ, चंद्र-तारे सूर्य का परकास हो॥

    तब तक हमारे देश में तुम सर्वदा फूला करो।

    निज वायु शीतल से पथिक-जन का हृदय शीतल करो॥

    Poem 9 – तुम – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    जब तक मैं मैं हूँ, तुम तुम हो,

    है जीवन में जीवन।

    कोई नहीं छीन सकता

    तुमको मुझसे मेरे धन।

    आओ मेरे हृदय-कुंज में

    निर्भय करो विहार।

    सदा बंद रखूँगी

    मैं अपने अंतर का द्वार।

    नहीं लांछना की लपटें

    प्रिय तुम तक जाने पाएँगीं।

    पीड़ित करने तुम्हें

    वेदनाएं न वहाँ आएँगीं।

    अपने उच्छ्वासों से मिश्रित

    कर आँसू की बूँद।

    शीतल कर दूँगी तुम प्रियतम

    सोना आँखें मूँद।

    जगने पर पीना छक-छककर

    मेरी मदिरा की प्याली।

    एक बूँद भी शेष

    न रहने देना करना खाली।

    नशा उतर जाए फिर भी

    बाकी रह जाए खुमारी।

    रह जाए लाली आँखों में

    स्मृतियाँ प्यारी-प्यारी।

    Poem 10 – राखी – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    भैया कृष्ण ! भेजती हूँ मैं

    राखी अपनी, यह लो आज ।

    कई बार जिसको भेजा है

    सजा-सजाकर नूतन साज ।।

    लो आओ, भुजदण्ड उठाओ

    इस राखी में बँध जाओ ।

    भरत – भूमि की रजभूमि को

    एक बार फिर दिखलाओ ।।

    वीर चरित्र राजपूतों का

    पढ़ती हूँ मैं राजस्थान ।

    पढ़ते – पढ़ते आँखों में

    छा जाता राखी का आख्यान ।।

    मैंने पढ़ा, शत्रुओं को भी

    जब-जब राखी भिजवाई ।

    रक्षा करने दौड़ पड़ा वह

    राखी – बन्द – शत्रु – भाई ।।

    किन्तु देखना है, यह मेरी

    राखी क्या दिखलाती है ।

    क्या निस्तेज कलाई पर ही

    बँधकर यह रह जाती है ।।

    देखो भैया, भेज रही हूँ

    तुमको-तुमको राखी आज ।

    साखी राजस्थान बनाकर

    रख लेना राखी की लाल ।।

    हाथ काँपता, हृदय धड़कता

    है मेरी भारी आवाज ।

    अब भी चौक-चौक उठता है

    जलियाँ का वह गोलन्दाज ।।

    यम की सूरत उन पतितों का

    पाप भूल जाऊँ कैसे?

    अंकित आज हृदय में है

    फिर मन को समझाऊँ कैसे ?

    बहिने कई सिसकती हैं हा

    सिसक न उनकी मिट पाई ।

    लाज गँवाई, गाली पाई

    तिस पर गोली भी खाई ।।

    डर है कही न मार्शल-ला का

    फिर से पड़ जावे घेरा ।

    ऐसे समय द्रौपदी-जैसा

    कृष्ण ! सहारा है तेरा ।।

    बोलो, सोच-समझकर बोलो,

    क्या राखी बँधवाओगे

    भीर पडेगी, क्या तुम रक्षा-

    करने दौड़े आओगे।

    यदि हाँ तो यह लो मेरी

    इस राखी को स्वीकार करो ।

    आकर भैया, बहिन ‘सुभद्रा’-

    के कष्टों का भार हरो ।।

    Poem 11 – फूल के प्रति – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    डाल पर के मुरझाए फूल!

    हृदय में मत कर वृथा गुमान।

    नहीं है सुमन कुंज में अभी

    इसी से है तेरा सम्मान॥

    मधुप जो करते अनुनय विनय

    बने तेरे चरणों के दास।

    नई कलियों को खिलती देख

    नहीं आवेंगे तेरे पास॥

    सहेगा कैसे वह अपमान?

    उठेगी वृथा हृदय में शूल।

    भुलावा है, मत करना गर्व

    डाल पर के मुरझाए फूल॥

    Poem 12 – कुट्टी – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    मोहन से तो आज हो गई

    है मेरी कुट्टी अम्मां ।

    अच्छा है शाला जाने से

    मिली मुझे छुट्टी अम्मां ।।

    रोज सवेरे आकर मुझको

    वह शाला ले जाता था ।

    दस बजते हैं इसी समय तो

    यह अपने घर आता था ।।

    मोहन बुरा नहीं है अम्मां

    मैं उसको करता हूं प्यार ।

    फिर भी जाने क्यों हो जाया

    करती है उससे तकरार ।।

    यह क्या ! कुट्टी होने पर भी

    वह आ रहा यहां मोहन ।

    आते उसको देख विजयसिंह

    हुए वहुत खुश मन ही मन ।।

    बोले-कुट्टी तो है मोहन

    फिर तुम कैसे आए हो

    फूल देख उसके बस्ते में

    पूछा यह क्या लाए हो ।।

    चलो दोस्ती कर लें फिर से

    दे दो हम को भी कुछ फूल।

    हमे खिला दो खाना अम्माँ

    अब हम जाएँगे स्कूल ।।

    Poem 13 – मेरा नया बचपन – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।

    गया ले गया तू जीवन की सबसे मस्त खुशी मेरी।

    चिंता-रहित खेलना-खाना वह फिरना निर्भय स्वच्छंद।

    कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद?

    ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छुआछूत किसने जानी?

    बनी हुई थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी।

    किये दूध के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा पिया।

    किलकारी किल्लोल मचाकर सूना घर आबाद किया।

    रोना और मचल जाना भी क्या आनंद दिखाते थे।

    बड़े-बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे।

    मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा लिया।

    झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा दिया।

    दादा ने चंदा दिखलाया नेत्र नीर-युत दमक उठे।

    धुली हुई मुस्कान देख कर सबके चेहरे चमक उठे।

    वह सुख का साम्राज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हुई।

    लुटी हुई, कुछ ठगी हुई-सी दौड़ द्वार पर खड़ी हुई।

    लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँगीली थी।

    तान रसीली थी कानों में चंचल छैल छबीली थी।

    दिल में एक चुभन-सी थी यह दुनिया अलबेली थी।

    मन में एक पहेली थी मैं सब के बीच अकेली थी।

    मिला, खोजती थी जिसको हे बचपन! ठगा दिया तूने।

    अरे! जवानी के फंदे में मुझको फँसा दिया तूने।

    सब गलियाँ उसकी भी देखीं उसकी खुशियाँ न्यारी हैं।

    प्यारी, प्रीतम की रँग-रलियों की स्मृतियाँ भी प्यारी हैं।

    माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब निराला है।

    आकांक्षा, पुरुषार्थ, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है।

    किंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेत्र संसार बना।

    चिंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना।

    आ जा बचपन! एक बार फिर दे दे अपनी निर्मल शांति।

    व्याकुल व्यथा मिटानेवाली वह अपनी प्राकृत विश्रांति।

    वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन निष्पाप।

    क्या आकर फिर मिटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

    मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी बिटिया मेरी।

    नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुटिया मेरी।

    ‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी मिट्टी खाकर आई थी।

    कुछ मुँह में कुछ लिये हाथ में मुझे खिलाने लाई थी।

    पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।

    मुँह पर थी आह्लाद-लालिमा विजय-गर्व था झलक रहा।

    मैंने पूछा ‘यह क्या लाई?’ बोल उठी वह ‘माँ, काओ’।

    हुआ प्रफुल्लित हृदय खुशी से मैंने कहा – ‘तुम्हीं खाओ’।

    पाया मैंने बचपन फिर से बचपन बेटी बन आया।

    उसकी मंजुल मूर्ति देखकर मुझ में नवजीवन आया।

    मैं भी उसके साथ खेलती खाती हूँ, तुतलाती हूँ।

    मिलकर उसके साथ स्वयं मैं भी बच्ची बन जाती हूँ।

    जिसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।

    भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन फिर से आया।

    Poem 14 – मधुमय प्याली – 

    सुभद्राकुमारी चौहान कविता

    रीती होती जाती थी

    जीवन की मधुमय प्याली।

    फीकी पड़ती जाती थी

    मेरे यौवन की लाली।

    हँस-हँस कर यहाँ निराशा

    थी अपने खेल दिखाती।

    धुंधली रेखा आशा की

    पैरों से मसल मिटाती।

    युग-युग-सी बीत रही थीं

    मेरे जीवन की घड़ियाँ।

    सुलझाये नहीं सुलझती

    उलझे भावों की लड़ियाँ।

    जाने इस समय कहाँ से

    ये चुपके-चुपके आए।

    सब रोम-रोम में मेरे

    ये बन कर प्राण समाए।

    मैं उन्हें भूलने जाती

    ये पलकों में छिपे रहते।

    मैं दूर भागती उनसे

    ये छाया बन कर रहते।

    विधु के प्रकाश में जैसे

    तारावलियाँ घुल जातीं।

    वालारुण की आभा से

    अगणित कलियाँ खुल जातीं।

    आओ हम उसी तरह से

    सब भेद भूल कर अपना।

    मिल जाएँ मधु बरसायें

    जीवन दो दिन का सपना।

    फिर छलक उठी है मेरे

    जीवन की मधुमय प्याली।

    आलोक प्राप्त कर उनका

    चमकी यौवन की लाली।

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