Skip to content

सच्चा दान- कहानी, Sachcha Dan Story

    सच्चा दान- कहानी, Sachcha Dan Story

    प्रेरणादायक कहानियों (Moral Stories) की श्रृंखला में आज हम आपके लिए सच्चा दान- कहानी लेकर आये हैं। जो महाभारत की कथा से ली गयी है। इस कहानी में दान के महत्व को समझाने का प्रयास किया गया है।

    सच्चा दान- कहानी

    महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद महाराज युधिष्ठिर ने एक महान अश्वमेध यज्ञ किया। जिसे सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा पूर्ण वैदिक विधि-विधान से संपन्न किया गया। उस यज्ञ में धर्मात्मा युधिष्ठिर ने समस्त ब्राह्मणों एवं याचकों को पूर्णतः संतुष्ट किया।

     

    युधिष्ठिर द्वारा उस यज्ञ में किये गए दान की चर्चा समस्त भूलोक में छा गयी। सर्वत्र पांडवों की प्रशंसा के स्वर ही गूंजते थे। इससे धर्मज्ञ पांडवों में कदाचित अभिमान के बीज अंकुरित होने लगे।

     

    उसी समय पांडवों के मानमर्दन हेतु एक विचित्र घटना घटी। यज्ञमण्डप के पास ही महाराज युधिष्ठिर ब्राह्मणों के साथ बैठे धर्मचर्चा में निमग्न थे। तभी कहीं से एक नेवला वहां आया जिसका आगे का आधा शरीर सोने का था।

     

    वह नेवला यज्ञभूमि पर लोटने लगा। थोड़ी देर बाद वह शांत होकर मनुष्य की बोली में बोला, “इस यज्ञ और इसमें किये गए दान की मैंने बहुत प्रसंशा सुनी थी। किन्तु यह यज्ञ तो एक गरीब भिक्षुक ब्राह्मण के एक सेर सत्तू के दान के बराबर भी नहीं है।

     

    यह सुनकर वहां उपस्थित ब्राह्मणों एवं पांडवों का पारा चढ़ गया। तभी वृद्ध ज्ञानी ब्राह्मण शान्त स्वर में उस नेवले से बोला, “यह तुम कैसे कह सकते हो ? इस यज्ञ को हमने पूर्ण विधि विधान से सम्पन्न करवाया है। महाराज युधिष्ठिर ने प्रत्येक याचक को उसका मुंहमांगा दान प्रदान किया है। यहां तक देवताओं ने भी पुष्पवर्षा करके इस यज्ञ की प्रसंशा की है।”

     

    नेवला बोला, “ब्राह्मण देवता, यह यज्ञ निश्चित ही श्रेष्ठ होगा। परन्तु एक निर्धन ब्राह्मण के एक सेर सत्तू के दान से प्राप्त पुण्यफल के सामने यह अश्वमेध यज्ञ नगण्य है। ऐसा मैं अपने अनुभव से ही कह रहा हूँ।”

     

    तब धर्मात्मा युधिष्ठिर ने नेवले से कहा, “आप हमें उन ब्राह्मण देवता और उनके दान की कथा सुनाइये। क्योंकि आपके मुख से उनका बार-बार वर्णन सुनकर हम भी उत्सुक हो उठे हैं।”

     

    तब वह स्वर्णयुक्त नकुल बोला, “हे धर्मराज ! कुरुक्षेत्र में एक धर्मज्ञ, वेदपाठी ब्राह्मण परिवार रहता था। उस परिवार में एक वृद्ध ब्राह्मण, उसकी पत्नी, एक पुत्र एवं पुत्रवधू रहते थे। वे सभी पूर्णरूपेण धर्मनिष्ठ थे। उस परिवार का भरण पोषण ब्राह्मण द्वारा लायी गयी भिक्षा से होता था।

     

    ब्राह्मण भी भिक्षाटन के नियम के अनुसार केवल पांच घरों में ही भिक्षा मांगता था। फिर चाहे उसे कुछ प्राप्त हो अथवा नहीं। इसके अतिरिक्त वे प्रतिदिन दिन के छठे प्रहर में एक बार भोजन करते थे। यदि उस समय भोजन न प्राप्त हो तो अगले दिन पुनः उसी समय भोजन करते थे। इस प्रकार वे शास्त्रसम्मत एवं धर्मानुकूल जीवन यापन कर रहे थे।

     

    एक बार कुरुक्षेत्र में भीषण अकाल पड़ा। सर्वत्र अन्न का अभाव हो गया। ऐसे में ब्राह्मण को कई-कई दिनों तक भिक्षा नहीं मिलती और उन्हें भूखे ही सोना पड़ता। ऐसे ही कई दिनों के उपवास के बाद एक दिन ब्राह्मण को भिक्षा में एक सेर जौ प्राप्त हुई।

     

    ब्राह्मण की पत्नी एवं बहू ने उसे पीसकर सत्तू तैयार किया। ब्राह्मण ने सत्तू के पांच भाग किये। चार अपने परिवार के लिए और एक भाग अतिथि के लिए। जैसे ही सभी लोग भोजन करने के लिए तैयार हुए एक ब्राह्मण ने द्वार पर आवाज लगाई।

     

    ब्राह्मण ने प्रसन्नतापूर्वक अतिथि ब्राह्मण को आसन दिया और भोजन हेतु सत्तू का पांचवा भाग प्रस्तुत किया। अतिथि ने वह सत्तू ग्रहण किया किन्तु वह उतने सत्तू से तृप्त नहीं हुआ। तब ब्राह्मण ने उसे अपना भाग भी दे दिया। लेकिन अतिथि ब्राह्मण तब भी तृप्त नहीं हुआ।

     

    अब ब्राह्मण विचलित हो गया। अतिथि को तृप्त करना आतिथेय का धर्म होता है और अपने आश्रितों को भोजन कराना भी गृहस्वामी का कर्तव्य होता है। पति को धर्मसंकट में देखकर पत्नी बोली, “नाथ, आप मेरे हिस्से का भी सत्तू अतिथि को दे दीजिये। क्योंकि पति पत्नी सभी कर्मों में सहभागी होते हैं।”

     

    ब्राह्मण ने कहा, “तुम्हें भोजन कराना मेरा कर्तव्य है। तुम वृद्ध और कई दिनों से भूखी हो। ऐसी स्थिति में मैं तुम्हारा हिस्सा कैसे ले सकता हूँ।”

    ब्राह्मणी बोली, “अतिथि को भोजन न कराने से आप पाप के भागी होंगे। आपकी अर्धांगिनी होने के नाते उस पाप का फल मुझे भी मिलेगा। इसके अतिरिक्त मेरा कर्तव्य भी है कि मैं आपके पुण्यकार्यों में सहायक बनूं। इसलिए आप निःसंकोच मेरा भाग भी अतिथि देवता को अर्पित कीजिये।”

     

    ब्राह्मण ने पत्नी का भाग भी अतिथि को दे दिया। किन्तु अतिथि कई दिनों का भूखा था। यत्ने सत्तू से भी उसकी तृप्ति न हुई। तब ब्राह्मण का पुत्र बोला-

    “पिताजी, आप मेरे हिस्से का भी अतिथि देवता को दे दीजिए।” ब्राह्मण ने उत्तर दिया, “पुत्र, तुम मेरे लिए सदैव बालक ही रहोगे। बालकों को भूख अधिक लगती है। साथ ही तुम्हारे सामने पूरा जीवन पड़ा है। तुम्हें सशक्त होने के लिए भोजन की आवश्यकता है। मैं वृद्ध हूँ, क्षुधा पर नियंत्रण कर सकता हूँ। इसलिए मैं तुम्हारा भाग नहीं ले सकता।”

     

    इसपर पुत्र बोला, ” पिताजी, पुत्र का कर्तव्य होता है कि वह पिता के सत्कर्मों आगे बढ़ाए। इसलिए आप मेरा भाग लेकर अतिथि को दे दीजिए।” यह सुनकर ब्राह्मण ने पुत्र का भाग भी अतिथि को अर्पित कर दिया। किन्तु वह अतिथि तो आजन्म भूखा प्रतीत होता था। उसकी क्षुधा शांत ही न होती थी।

     

    अब ब्राह्मण सोच में पड़ गया। अपने श्वसुर को चिन्तित देखकर पुत्रवधू बोली, “पिताजी, मेरे हिस्से का सत्तू भी अतिथि को दे दीजिए। ब्राह्मण दुखी स्वर में बोला, “पुत्री मैं यह नहीं कर पाऊंगा। पहले ही तुम कृशकाय हो। पर्याप्त भोजन के अभाव में तुम्हारी कांति मलिन हो गयी है। यत्ने दिनों बाद मिले भोजन को छीनने का पाप मैं नही करूंगा।”

     

    पुत्रवधू ने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया, “पिताजी, मैं भी इस परिवार का हिस्सा हूँ। परिवार के सुख-दुख, पुण्य-पाप में मेरी भी हिस्सेदारी है। मेरा भी कर्तव्य है कि मैं परिवार मर्यादा और सत्कर्मों में सहायक बनूं। इसलिए आप मेरा भाग अतिथि को अवश्य दीजिए।”

     

    ब्राह्मण ने आशीर्वाद देते हुए मुदित मन से पुत्रवधू का भाग भी अतिथि को अर्पित कर दिया। तभी आश्चर्यजनक घटना घटी। अतिथि के स्थान पर एक दिव्य पुरुष प्रकट हुए और बोले-

    “हे ब्राह्मण ! तुम और तुम्हारा परिवार धन्य है। जो आपत्तिकाल में भी धर्म को नहीं छोड़ता है। भूख बड़े बड़े संयमी और सिद्धजनों को भी विचलित कर देती है। लेकिन तुम आतिथेय की मर्यादा पर अडिग रहे।

     

    “मैं स्वयं धर्म हूँ और तुम्हारी परीक्षा लेने आया हूँ। देखो आकाश में देवता भी तुम्हारे इस महान त्याग को देख रहे हैं। वे तुम्हारी भूरि-भूरि प्रसंशा कर रहे हैं। तुम्हारा यह दान कई अश्वमेध यज्ञों से भी बढ़कर है।”

     

    “दान त्याग का ही स्वरूप है। जो अपने उपयोग से बढ़ी हुई वस्तु का दान करता है वह उत्तम दान वह नहीं है। सर्वश्रेष्ठ दान वह है जो व्यक्ति अपने स्वयं के हिस्से से देता है। वस्तु और मात्रा मायने नही रखती। तुम और तुम्हारा परिवार महादानियों की श्रेणी में शामिल हो गया है। इस महादान के पुण्यप्रताप से तुम सपरिवार दिव्यलोक को प्रस्थान करो। दिव्यरथ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।”

     

    यह कहकर धर्मदेवता अंतर्ध्यान हो गए। ब्राह्मण परिवार दिव्यरथ में बैठकर दिव्यलोक को चल दिया। मैं वही स्थित एक बिल में बैठा सबकुछ देख सुन रहा था। सबके चले जाने के बाद मैं बिल से निकला और उस भूमि पर लोटने लगा।

     

    वहां गिरे सत्तू के कणों के स्पर्श के कारण मेरा आधा शरीर सोने का हो गया। साथ ही मेरे अंदर मनुष्य की तरह बोलने की शक्ति भी आ गयी। तबसे मैं इस आशा में हर यज्ञ, पूजन, धर्मसंसद आदि में जाता हूँ और उस पवित्र भूमि पर लोटता हूँ कि शायद मेरा बाकी का शरीर भी सोने का हो जाये।

    किन्तु बड़े दुख से कहना पड़ रहा है कि तब से लेकर आजतक धरती पर कोई ऐसा धर्मकार्य नहीं हुआ। जिसका पुण्यप्रताप उस ब्राह्मण के सत्तू दान के बराबर हो।

    उस नेवले बात सुनकर पांडवों का अभिमान चूर चूर हो गया।

    सीख- Moral

    धरती पर दान ही सबसे बड़ा धर्म है। इसलिए। यथाशक्ति दान अवश्य करना चाहिए। दान में मात्रा और वस्तु का कोई महत्व नहीं है। बस श्रद्धा एवं भावना सही होनी चाहिए।

     

    सच्चा दान- कहानी, Sachcha Dan Story, hindi story,story in hindi,story,सच्चा दान,love story,सच्चा दान जीवन दान,सच्चा दान क्या है,सेठजी का सच्चा दान,चायदानी की कहानी,दान धर्म की कहानी,short story,दानवीर कर्ण की कहानी,डेरा सच्चा सौदा,story for kids,princess story,sachaa daan | सच्चा दान | true donation | hindi short film,sachcha mitra,कहानी,fairy story in hindi,dronacharya eklavya story,princess story in hindi,buddh ne kise sachcha daan mana hai,sachha dan,कर्ण की कहानी

    close