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रामधारी सिंह दिनकर की कविता, Poems of Ramdhari Singh Dinkar

    Table of Contents

    रामधारी सिंह दिनकर की कविता, Poems of Ramdhari Singh Dinkar

    Poem 1 – Ramdhari Singh Dinkar Poem Himalaya | 
    हिमालय – रामधारी सिंह “दिनकर”
    मेरे नगपति! मेरे विशाल!

    साकार, दिव्य, गौरव विराट्,

    पौरूष के पुन्जीभूत ज्वाल!

    मेरी जननी के हिम-किरीट!

    मेरे भारत के दिव्य भाल!

    मेरे नगपति! मेरे विशाल!

    युग-युग अजेय, निर्बन्ध, मुक्त,

    युग-युग गर्वोन्नत, नित महान,

    निस्सीम व्योम में तान रहा

    युग से किस महिमा का वितान?

    कैसी अखंड यह चिर-समाधि?

    यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?

    तू महाशून्य में खोज रहा

    किस जटिल समस्या का निदान?

    उलझन का कैसा विषम जाल?

    मेरे नगपति! मेरे विशाल!

    ओ, मौन, तपस्या-लीन यती!

    पल भर को तो कर दृगुन्मेष!

    रे ज्वालाओं से दग्ध, विकल

    है तड़प रहा पद पर स्वदेश।

    सुखसिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र,

    गंगा, यमुना की अमिय-धार

    जिस पुण्यभूमि की ओर बही

    तेरी विगलित करुणा उदार,

    जिसके द्वारों पर खड़ा क्रान्त

    सीमापति! तू ने की पुकार,

    ‘पद-दलित इसे करना पीछे

    पहले ले मेरा सिर उतार।’

    उस पुण्यभूमि पर आज तपी!

    रे, आन पड़ा संकट कराल,

    व्याकुल तेरे सुत तड़प रहे

    डस रहे चतुर्दिक विविध व्याल।

    मेरे नगपति! मेरे विशाल!

    कितनी मणियाँ लुट गईं? मिटा

    कितना मेरा वैभव अशेष!

    तू ध्यान-मग्न ही रहा, इधर

    वीरान हुआ प्यारा स्वदेश।

    वैशाली के भग्नावशेष से

    पूछ लिच्छवी-शान कहाँ?

    ओ री उदास गण्डकी! बता

    विद्यापति कवि के गान कहाँ?

    तू तरुण देश से पूछ अरे,

    गूँजा कैसा यह ध्वंस-राग?

    अम्बुधि-अन्तस्तल-बीच छिपी

    यह सुलग रही है कौन आग?

    प्राची के प्रांगण-बीच देख,

    जल रहा स्वर्ण-युग-अग्निज्वाल,

    तू सिंहनाद कर जाग तपी!

    मेरे नगपति! मेरे विशाल!

    रे, रोक युधिष्ठिर को न यहाँ,

    जाने दे उनको स्वर्ग धीर,

    पर, फिर हमें गाण्डीव-गदा,

    लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।

    कह दे शंकर से, आज करें

    वे प्रलय-नृत्य फिर एक बार।

    सारे भारत में गूँज उठे,

    ‘हर-हर-बम’ का फिर महोच्चार।

    ले अंगडाई हिल उठे धरा

    कर निज विराट स्वर में निनाद

    तू शैलीराट हुँकार भरे

    फट जाए कुहा, भागे प्रमाद

    तू मौन त्याग, कर सिंहनाद

    रे तपी आज तप का न काल

    नवयुग-शंखध्वनि जगा रही

    तू जाग, जाग, मेरे विशाल

    Poem 2 – Ramdhari Singh Kavita | 
    नई आवाज –
    रामधारी सिंह “दिनकर”
    कभी की जा चुकीं नीचे यहाँ की वेदनाएँ,

    नए स्वर के लिए तू क्या गगन को छानता है?

    बताएँ भेद क्या तारे? उन्हें कुछ ज्ञात भी हो,

    कहे क्या चाँद? उसके पास कोई बात भी हो।

    निशानी तो घटा पर है, मगर, किसके चरण की?

    यहाँ पर भी नहीं यह राज़ कोई जानता है।

    सनातन है, अचल है, स्वर्ग चलता ही नहीं है;

    तृषा की आग में पड़कर पिघलता ही नहीं है।

    मजे मालूम ही जिसको नहीं बेताबियों के,

    नई आवाज की दुनिया उसे क्यों मानता है?

    धुओं का देश है नादान! यह छलना बड़ी है,

    नई अनुभूतियों की खान वह नीचे पड़ी है।

    मुसीबत से बिंधी जो जिन्दगी, रौशन हुई वह,

    किरण को ढूँढता लेकिन, नहीं पहचानता है।

    गगन में तो नहीं बाकी, जरा कुछ है असल में,

    नए स्वर का भरा है कोष पर, अब तक अतल में।

    कढ़ेगी तोड़कर कारा अभी धारा सुधा की,

    शरासन को श्रवण तक तू नहीं क्यों तानता है?

    नया स्वर खोजनेवाले! तलातल तोड़ता जा,

    कदम जिस पर पड़े तेरे, सतह वह छोड़ते जा;

    नई झंकार की दुनिया खत्म होती कहाँ पर?

    वही कुछ जानता, सीमा नहीं जो मानता है।

    वहाँ क्या है कि फव्वारे जहाँ से छूटते हैं,

    जरा-सी नम हुई मिट्टी कि अंकुर फूटते हैं?

    बरसता जो गगन से वह जमा होता मही में,

    उतरने को अतल में क्यों नहीं हठ ठानता है?

    हृदय-जल में सिमट कर डूब, इसकी थाह तो ले,

    रसों के ताल में नीचे उतर अवगाह तो ले।

    सरोवर छोड़ कर तू बूँद पीने की खुशी में,

    गगन के फूल पर शायक वृथा संधानता है।

    Poem 3 – Ramdhari Singh Dinkar Best Poems | 
    विपत्ति जब आती है
    सच है, विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,

    शूरमा नहीं विचलित होते, क्षण एक नहीं धीरज खोते,

    विघ्नों को गले लगाते हैं, काँटों में राह बनाते हैं।

    मुख से न कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण न गहते हैं,

    जो आ पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं,

    शूलों का मूल नसाने को, बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।

    है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में ?

    खम ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पाँव उखड़।

    मानव जब जोर लगाता है, पत्थर पानी बन जाता है।

    गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर,

    मेंहदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो।

    बत्ती जो नहीं जलाता है, रोशनी नहीं वह पाता है।

    पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, झरती रस की धारा अखण्ड,

    मेंहदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओं का सिंगार।

    जब फूल पिरोये जाते हैं, हम उनको गले लगाते हैं।

    वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखण्ड-विजेता कौन हुआ ?

    अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ ?

    जिसने न कभी आराम किया, विघ्नों में रहकर नाम किया।

    जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जगाते हैं,

    मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झँझोरते हैं पल-पल।

    सत्पथ की ओर लगाकर ही, जाते हैं हमें जगाकर ही।

    वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं।

    वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।

    वन में प्रसून तो खिलते हैं, बागों में शाल न मिलते हैं।

    कंकरियाँ जिनकी सेज सुघर, छाया देता केवल अम्बर,

    विपदाएँ दूध पिलाती हैं, लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।

    जो लाक्षा-गृह में जलते हैं, वे ही शूरमा निकलते हैं।

    बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!

    जीवन का रस छन जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे।

    तू स्वयं तेज भयकारी है, क्या कर सकती चिनगारी है?

    Poem 4 – Short Poem of Ramdhari Singh Dinkar | 
    निराशावादी
    पर्वत पर, शायद, वृक्ष न कोई शेष बचा,

    धरती पर, शायद, शेष बची है नहीं घास;

    उड़ गया भाप बनकर सरिताओं का पानी,

    बाकी न सितारे बचे चाँद के आस-पास ।

    क्या कहा कि मैं घनघोर निराशावादी हूँ?

    तब तुम्हीं टटोलो हृदय देश का, और कहो,

    लोगों के दिल में कहीं अश्रु क्या बाकी है?

    बोलो, बोलो, विस्मय में यों मत मौन रहो ।

    Poem 5 – Famous Poems of Ramdhari Singh Dinkar | 
    कृष्ण की चेतावनी
    वर्षों तक वन में घूम-घूम,

    बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,

    सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,

    पांडव आये कुछ और निखर।

    सौभाग्य न सब दिन सोता है,

    देखें, आगे क्या होता है।

    मैत्री की राह बताने को,

    सबको सुमार्ग पर लाने को,

    दुर्योधन को समझाने को,

    भीषण विध्वंस बचाने को,

    भगवान हस्तिनापुर आये,

    पांडव का संदेशा लाये।

    दो न्याय अगर तो आधा दो,

    पर, इसमें भी यदि बाधा हो,

    तो दे दो केवल पाँच ग्राम,

    रक्खो अपनी धरती तमाम।

    हम वहीं खुशी से खायेंगे,

    परिजन पर असि न उठायेंगे!

    दुर्योधन वह भी दे ना सका,

    आशीष समाज की ले न सका,

    उलटे, हरि को बाँधने चला,

    जो था असाध्य, साधने चला।

    जब नाश मनुज पर छाता है,

    पहले विवेक मर जाता है।

    हरि ने भीषण हुंकार किया,

    अपना स्वरूप-विस्तार किया,

    डगमग-डगमग दिग्गज डोले,

    भगवान कुपित होकर बोले-

    ‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,

    हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।

    यह देख, गगन मुझमें लय है,

    यह देख, पवन मुझमें लय है,

    मुझमें विलीन झंकार सकल,

    मुझमें लय है संसार सकल।

    अमरत्व फूलता है मुझमें,

    संहार झूलता है मुझमें।

    उदयाचल मेरा दीप्त भाल,

    भूमंडल वक्षस्थल विशाल,

    भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,

    मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।

    दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,

    सब हैं मेरे मुख के अन्दर।

    दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,

    मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,

    चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,

    नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।

    शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,

    शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

    शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,

    शत कोटि जिष्णु, जलपति, धनेश,

    शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,

    शत कोटि दण्डधर लोकपाल।

    जंजीर बढ़ाकर साध इन्हें,

    हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।

    भूलोक, अतल, पाताल देख,

    गत और अनागत काल देख,

    यह देख जगत का आदि-सृजन,

    यह देख, महाभारत का रण,

    मृतकों से पटी हुई भू है,

    पहचान, इसमें कहाँ तू है।

    अम्बर में कुन्तल-जाल देख,

    पद के नीचे पाताल देख,

    मुट्ठी में तीनों काल देख,

    मेरा स्वरूप विकराल देख।

    सब जन्म मुझी से पाते हैं,

    फिर लौट मुझी में आते हैं।

    जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,

    साँसों में पाता जन्म पवन,

    पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,

    हँसने लगती है सृष्टि उधर!

    मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,

    छा जाता चारों ओर मरण।

    बाँधने मुझे तू आया है,

    जंजीर बड़ी क्या लाया है?

    यदि मुझे बाँधना चाहे मन,

    पहले तो बाँध अनन्त गगन।

    सूने को साध न सकता है,

    वह मुझे बाँध कब सकता है?

    हित-वचन नहीं तूने माना,

    मैत्री का मूल्य न पहचाना,

    तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,

    अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।

    याचना नहीं, अब रण होगा,

    जीवन-जय या कि मरण होगा।

    टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,

    बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,

    फण शेषनाग का डोलेगा,

    विकराल काल मुँह खोलेगा।

    दुर्योधन! रण ऐसा होगा।

    फिर कभी नहीं जैसा होगा।

    भाई पर भाई टूटेंगे,

    विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,

    वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,

    सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।

    आखिर तू भूशायी होगा,

    हिंसा का पर, दायी होगा।’

    थी सभा सन्न, सब लोग डरे,

    चुप थे या थे बेहोश पड़े।

    केवल दो नर ना अघाते थे,

    धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।

    कर जोड़ खड़े प्रमुदित,

    निर्भय, दोनों पुकारते थे ‘जय-जय’!

    Poem 6 – Poems by Ramdhari Singh Dinkar | 
    संस्कार
    कल कहा एक साथी ने, तुम बर्बाद हुए,

    ऐसे भी अपना भरम गँवाया जाता है?

    जिस दर्पण में गोपन-मन की छाया पड़ती,

    वह भी सब के सामने दिखाया जाता है?

    क्यों दुनिया तुमको पढ़े फकत उस शीशे में,

    जिसका परदा सबके सम्मुख तुम खोल रहे?

    ‘इसके पीछे भी एक और दर्पण होगा,’

    कानाफूसी यह सुनो, लोग क्या बोल रहे?

    तुम नहीं जानते बन्धु! चाहते हैं ये क्या,

    इनके अपने विश्वास युगों से आते हैं,

    है पास कसौटी, एक सड़ी सदियोंवाली,

    क्या करें? उसी के ऊपर हमें चढ़ाते हैं।

    सदियों का वह विश्वास, कभी मत क्षमा करो,

    जो हृदय-कुंज में बैठ तुम्हीं को छलता है,

    वह एक कसौटी, लीक पुरानी है जिस पर,

    मारो उसको जो डंक मारते चलता है।

    जब डंकों के बदले न डंक हम दे सकते,

    इनके अपने विश्वास मूक हो जाते हैं,

    काटता, असल में, प्रेत इन्हें अपने मन का,

    मेरी निर्विषता से नाहक घबराते हैं।

    Poem 7 – Hindi Poems by Ramdhari Singh Dinkar | 
    कलम, आज उनकी जय बोल
    जला अस्थियाँ बारी-बारी

    चिटकाई जिनमें चिंगारी,

    जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर

    लिए बिना गर्दन का मोल

    कलम, आज उनकी जय बोल।

    जो अगणित लघु दीप हमारे

    तूफानों में एक किनारे,

    जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन

    माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल

    कलम, आज उनकी जय बोल।

    पीकर जिनकी लाल शिखाएँ

    उगल रही सौ लपट दिशाएं,

    जिनके सिंहनाद से सहमी

    धरती रही अभी तक डोल

    कलम, आज उनकी जय बोल।

    अंधा चकाचौंध का मारा

    क्या जाने इतिहास बेचारा,

    साखी हैं उनकी महिमा के

    सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल

    कलम, आज उनकी जय बोल।

    Poem 8 – Poems of Ramdhari Singh Dinkar | 
    इच्छा-हरण
    धरती ने भेजा था सूरज-चाँद स्वर्ग से लाने,

    भला दीप लेकर लौटूं किसको क्या मुख दिखलाने?

    भर न सका अंजलि, तू पूरी कर न सका यह आशा,

    उलटे, छीन रहा है मुझसे मेरी चिर-अभिलाषा ।

    रहने दे निज कृपा, हुआ यदि तू ऐसा कंगाल,

    मनसूबे मत छीन, कलेजे से मत कसक निकाल ।

    माना, है अधिकार तुझे दानी सब कुछ देने का,

    मगर, निराला खेल कौन इच्छाएँ हर लेने का ?

    अचल साध्य-साधक हम दोनों, अचल कामना-कामी,

    इतनी सीधी बात तुझे ही ज्ञात न अन्तर्यामी !

    माँग रहा चन्द्रमा स्वर्ग का, मांग रहा दिनमान,

    नहीं माँगने मैं आया इच्छाओं का अवसान !

    Poem 9 – Short Hindi Ramdhari Singh Dinkar Poem | 
    बापू
    जो कुछ था देय, दिया तुमने, सब लेकर भी

    हम हाथ पसारे हुए खड़े हैं आशा में;

    लेकिन, छींटों के आगे जीभ नहीं खुलती,

    बेबसी बोलती है आँसू की भाषा में।

    वसुधा को सागर से निकाल बाहर लाये,

    किरणों का बन्धन काट उन्हें उन्मुक्त किया,

    आँसुओं-पसीनों से न आग जब बुझ पायी,

    बापू! तुमने आखिर को अपना रक्त दिया।

    Poem 10 – Famous Ramdhari Singh Poems | 
    रोटी और स्वाधीनता
    आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ?

    मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ?

    आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं,

    पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

    हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले,

    पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले।

    इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ?

    है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ?

    झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ?

    आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ?

    है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी,

    बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।

    Poem 11 – Ramdhari Singh Dinkar Poems | 
    अपराध
    बापू, लोगे किसका प्रणाम?

    सब हाथ जोड़ने आए हैं।

    ये वे, जिनकी अंजलियों में

    पूजा के फूल नही दिपते,

    ये वे, जिनकी मुट्ठी में भी

    लोहू के दाग नही छिपते;

    ये वे, जिनकी आरती-शिखा

    हाथों मे सहमी जाती है;

    मन मे अगाध तम की छाया

    को पास देख घबराती है।

    श्रद्धा के सिर पर ग्लानी-भार,

    गौरव की ग्रीवा झुकी हुई ।

    व्रणमयी भक्ति की आँखों में

    काले-काले घन छाए हैं।

    बापू! लोगे किसका प्रणाम,

    सब हाथ जोड़ने आए हैं।

     

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