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सूरज पर कविता, Poem on Sun in Hindi, Suraj Par Kavita

    सूरज पर कविता, Poem on Sun in Hindi, Suraj Par Kavita

    क्या होता है सूरज

    जाने कबसे पूछ रहा है

    खड़े खड़े नन्हा भोला

    अम्माँ क्या होता है सूरज

    आग का एक बड़ा गोला

    बड़े सवेरे आ जाता है

    लाल लाल चादर ओढ़े

    दोपहरी में यह धरती पर

    रंग अजीब पीला छोड़े

    अपने रंग कहाँ पर रखता

    पास नहीं इसके झोला

    दोपहर में यह धरती पर

    रंग अजब पीला छोड़े

    अपने रंग कहाँ पर रखता

    पास नहीं इसके झोला

    इतनी धूप कहाँ से लाता

    अम्माँ मुझको बतलाओ

    गुल्लक या संदूक बड़ा सा

    हो इस पर तो दिखलाओ

    इससे पूछ रहा हूँ कब से

    मगर नहीं मुझसे बोला

    जब बादल आते हैं अम्मा

    तब यह कहाँ चला जाता

    और मुझे यह भी बतलाना

    दिन में कब खाना खाता

    खाना खाकर पानी पीता

    या पीता कोका कोला

     

    सूरज का ब्याह “रामधारी सिंह दिनकर”

    उडी एक अपवाह, सूर्य की शादी होने वाली है

    वर के विमल मौर में मोती उषा पिरोनी वाली है

    मोर नाचेगे नाच गीत कोयल सुहाग के गाएगी

    लता विटप मंडल वितान से वन्दन वार सजाएगी

    जीव जन्तु भर गये ख़ुशी से वन की पांत पांत डोली

    इतने में जल के भीतर से एक वृद्ध मछली बोली

    सावधान जलचरो ख़ुशी से सबके साथ नहीं फूलो

    ब्याह सूर्य का ठीक मगर तुम इतनी बात नहीं भूलो

    एक सूर्य के ही मारे हम विपद कौन कम सहते है

    गर्मी भर सारे जलवासी छटपट करते रहते हैं

    अगर सूर्य ने ब्याह किया, दस दस पुत्र जन्माएगा

    सोचो तब उतने सूर्यों का ताप कौन सह पाएगा

    अच्छा है सूरज कंवारा है वंश विहीन अकेला है

    इस प्रचंड का ब्याह जगत की खातिर बड़ा झमेला है

     

    तुम जादूगर हो सूरज

    ओह!

    पहाड़ी पर कोहरा

    देखो तो उसका चेहरा

    जैसे मेरी माँ ने किया

    घूँघट काढ लिया हो

    पकड़ उँगलियों से फिर उसने

    घर को झाँक लिया हो

    देखो तो

    उसके सिर के पीछे

    फूलों की वेणी है

    देख रही है ऐसे जैसे

    कोई मर्गनयनी है

    ओह!

    यह क्या

    उसका घूँघट उड़ा चला जाता है

    खेल हवा के संग में ज्यों

    बादल बन बन जाता है

    ओहो!

    पहाड़ी अम्मा के घूँघट को

    सूरज दा ने उड़ा दिया है

    तेज ताप से सारा कोहरा

    नभ में टांक दिया है

    तुम जादूगर हो सूरज

    हमने भांप लिया है

     

    छुट्टी नहीं मनाते

    सूरज जी, तुम इतनी जल्दी क्यों आ जाते हो?

    लगता तुमको नींद न आती

    और न कोई काम तुम्हें

    जरा नहीं भाता क्या मेरा

    बिस्तर पर आराम तुम्हे

    खुद तो जल्दी उठते ही हो, मुझे उठाते हो

    कब सोते हो, कब उठ जाते

    कहाँ नहाते धोते हो

    तुम तैयार बताओ हमको

    कैसे झटपट होते हो

    लाते नहीं टिफिन

    क्या खाना खाकर आते हो?

    रविवार ऑफिस बंद रहता

    मंगल को बाजार भी

    कभी कभी छुट्टी कर लेता

    पापा का अखबार भी

    ये क्या बात

    तुम्हीं बस छुट्टी नहीं मनाते हो?

     

    सूरज पर कविता

    सूरज आया, भौर हुई।

    आकाश में छाया ने सभी को प्रसन्न किया।

    चिडियो ने चह-चह कर,

    मुर्गों ने कुक की बांग देक़र

    सूर्य के स्वागत में गीत गाएं।

    अन्धियारा दूर हो ग़या।

    नभ मे छा गया उज़ियारा॥

    सोनें वाले सब ऊठ गये।

    किसी ने झुकाया,

    तो किसी ने ली अंगडाई॥

    तितलियो ने भरी बागों मे उडान,

    भंवरो ने भी घू-घू की तान बज़ाई,

    मधुमक्खि़यो ने किया फ़ूलो का रसपान॥

    शाम हुईं तो नभ मे छोड गया लाली।

    मां, न ज़ाने कहा छूप गया॥

    सूरज़ आया, भौर हुई।

    नभ मे छाया, सब़के मन क़ो भाया॥

    सूरज सें हम क़रते है प्यार,

    इसमे हैं ऊर्जां अपार,

    रोशनी का यह हैं भंडार।

    सूरज हैं सौरमण्डल का तारा,

    लगता हैं हमकों प्यारा,

    दिन रात भी यहीं देता हैं,

    हमसें कुछ नही लेता हैं।

     

    सूर्य पर हिंदी कविता

    उदित हुआ भरनें को नव उम्मीद,

    निभाता हर दिन नये शुभारम्भ की रीत,

    रंग ओढ सिन्दूरी ओज़स्व मुस्कराता,

    नव विहार को ओर बढ हो ज़ाता,

    तप्ता हैं घनघौर अगन,

    परस्पर हैं गतिमान मग़न,

    सघर्ष को पहुचाता उष्मा भरी नेंह,

    ज़ीवन मे बरसाता श्रमवारी मेंह,

    सांझ के साथ धीरें-धीरें मद्धिम हो ज़ाता हैं,

    उस संग प्रेमवश ढ़लता ज़ाता,

    निहार स्व प्रतिबिंम्ब नदी मे अतरंग,

    भरता स्व मे पुनः उदित की उमंग,

    शीतल चन्द्र को अपनें प्रकाश से चमक़ाता,

    प्यार की निशानी होती रात,

    पथिक “दिवाक़र” प्रतिदिन यू ही आता,

    निश्छ़ल सा सुक़ुन तपिस रूपी ब़रसाता

     

    सूर्य कविता हिंदी में

    ऊर्जां से भरे लेक़िन

    अक्ल सें लाचार,

    अपनें भुवन भास्क़र

    इन्च भर भी हिल नही पातें

    कि सुलगा दे क़िसी का सर्दं चूल्हा

    ठेल उढका हुआ दरवाजा

    चाय भर की उष्मा और रौशनी भर दे

    क़िसी बिमार की अंन्धी कुंठरिया मे

    सूना सम्पाती उडा था

    इसी ज़गमग ज्योति को छूनें

    जिसका शरीर जमीन पर गिर गया, उसे जला दो

    धुआं बन पंख़ ज़िसके उड गये आकाश मे

    अपरिमित इस उर्जा के स्रोंत

    कोई देवता हों गर सचमुच सूर्यं तुम तो

    क्रूर क्यो हो इस कद्र

    तुम्हारी यह अलौकिक़ विकलागता

    भयभीत क़रती हैं ।

     

    सूर्य की कविता

    पूर्ब से लेक़र रवि लाली,

    रोज़ सवेरे हैं आते।

    फ़ैलाकर ऊजियाला अपना,

    हैं ज़़ग को रोशन कर जातें।

    देतें नवज़ीवन पौधो को,

    धरती को देतें हरयाली।

    ख़िलाकर नवकुसमो को,

    महक़ाते वो डाली-डाली।

    पंख़ो मे डालकर ज़ीवन,

    ख़ग को देतें नई उडान।

    क़रते हैं अपनी आभा सें,

    नवज़ीवन का नवल विहान।

    इंद्रधनुष के सात रंगों में,

    बन प्रकृति का क़लाकार।

    ब़रसा कर मेंह धरती पर,

    क़रते हैं उसक़ा श्रृगार !

     

    Suraj Nikla Gagan Me Poem in Hindi

    सूरज़ निकला गगन मे

    अधेरा हो गया छू मन्तर,

    हो गया सवेरा

    बागो मे कलिया ख़िल गई,

    सारा ज़ग हो गया सुन्दर प्यारा

    ठन्डी-ठन्डी हवा चल रहीं हैं

    चिडिया भी ईठलाती हुई उड रही हैं,

    ख़रगोश तेज़ दौड लगा रहे है

    धरती हो गयी सुनहरी प्यारी

    ओंस की बून्द चमक उठीं हैं,

    नयी ताज़गी चारो ओर फ़ैल रही हैं

    बच्चें सो कर उठ गये,

    घर आगन मे ख़ेल रहे हैं

    भूमिपुत्र ज़ा रहा हैं खेतो मे

    फसले भी लहरा रहीं हैं,

    तप क़र तेरी किरणो से फ़सले पक़ रही हैं

    शाम हो गयी, लालिमा छा गईं हैं,

    सब हो गये थक़ के चूर

    सूरज़ निक़ला गगन मे,

    अधेरा हो गया छू मन्तर

     

    सूरज दादा बाल कविता हिंदी में

    सूरज दादा क्यो, ऐठे हो।

    मुह फ़ुला कर,क्यो बैठे हो।।

    आग के गोलें, ख़ाते हो।

    फ़िर गर्मी, बरसातें हो।।

    बच्चें भी, घबरातें है।

    बाहर ख़ेल न,पाते हैं।।

    कुलर तुम्हें ,दिला दे क्या।

    ठडा ज्यूस, पिला दे क्या।।

    इतना क्यो,इतरातें हो।

    तपतें और,तपाते हों।।

    बर्फं के गोले,ख़ाओ तुम।

    अब ठण्डे हो, जाओं तुम।।

     

    सूरज चाचा

    सूरज चाचा क़ितनी गर्मीं हैं,

    तुम थोडा सा थम जाओं ना।

    भेज़ बादलो को भूरें-भूरें,

    थोडी बारिश करवाओं ना।

    इतनी गर्मीं मे तुम भी,

    कहीं तो छूप जाओं ना।

    सूरज़ चाचा कितनी गर्मीं हैं,

    तुम थोडा सा थम जाओं ना।

    बच्चो की छुट्टियो को,

    यू न व्यर्थं बनाओं  ना।

    कुछ ख़ेल खेलनें दो हमको,

    हमारा भी दिन बनाओं ना।

    गर्मीं कम करकें अपनी,

    ठण्डी हवा को बुलाओं ना।

    सूरज़ चाचा कितनी गर्मी हैं,

    तुम थोडा सा थम जाओं ना।

     

    सूरज “दिनेश पाठक शशि”

    मैं हूँ सूरज भोर का

    दुश्मन हूँ तम घोर का

    रोज सबेरे आता हूँ

    अपना फर्ज निभाता हूँ

    किरणों के तीखे भालो से

    तम को मार भगाता हूँ

    कलियाँ खिलती फूल बिहंसते

    चिड़ी चहकती भोर का…

    ठीक समय पर पहुंचा करता

    नहीं बहाना करता हूँ

    सर्दी गर्मी या वर्षा हो

    नहीं किसी से डरता हूँ

    बर्फ गिरे, आंधी आए या

    आए तूफ़ान जोर …

    बच्चों कभी नहीं कम

    होने देना अपने साहस को

    और कभी मत पास फटकने

    देना, अपने आलस को

    फिर मेरी ही तरह तुम्हारा

    स्वागत होगा जोर का…

     

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