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हिन्दू नववर्ष पर कविता,Hindu New Year Kavita

    हिन्दू नववर्ष पर कविता,Hindu New Year Kavita

    हिन्दू नववर्ष पर कविता

    ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं,
    है अपना ये त्यौहार नहीं।
    है अपनी ये तो रीत नहीं, 
    है अपना ये त्यौहार नहीं।।
    
    धरा ठिठुरती है सर्दी से,
    आकाश में कोहरा गहरा है।
    बाग बाजारों की सरहद पर, 
    सर्द हवा का पहरा है।।
    
    सूना है प्रकृति का आंगन,
    कुछ रंग नहीं, उमंग नहीं।
    हर कोई है घर में दुबका हुआ,
    नववर्ष का ये कोई ढंग नहीं।।
    
    चंद मास अभी इंतजार करो,
    निज मन में तनिक विचार करो।
    नए साल नया कुछ हो तो सही,
    क्यों नकल में सारी अक्ल बही।।
    
    उल्लास मन्द है जन मन का,
    आयी है अभी बहार नहीं।
    ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं,
    है अपना ये त्यौहार नहीं।।
    
    ये धुंध कुहासा छटने दो,
    रातों का राज्य सिमटने दो।
    प्रकृति का रूप निखरने दो,
    फागुन का रंग बिखरने दो।।
    
    प्रकृति दुल्हन का रूप धार,
    जब स्नेह सुधा बरसाएगी।
    शस्य- श्यामला धरती माता,
    घर-घर खुशहाली लाएगी।।
    
    जब चैत्र शुक्ल की प्रथम तिथि,
    नववर्ष मनाया जाएगा।
    आर्यावर्त की पुण्यभूमि पर,
    जयगान सुनाया जाएगा।।
    
    युक्ति प्रमाण से स्वयंसिद्ध,
    नववर्ष हमारा हो प्रसिद्ध।
    आर्यों की कीर्ति सदा- सदा,
    नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।।
    
    अनमोल विरासत के धनिकों को
    चाहिए कोई उधार नहीं।
    ये नववर्ष हमें स्वीकार नहीं,
    है अपना ये त्यौहार नहीं।
    है अपनी ये तो रीत नहीं, 
    है अपना ये त्यौहार नहीं।।

     

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