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मूर्ख सिंह और चालाक गीदड़, Hindi Good Stories with Morals

    मूर्ख सिंह और चालाक गीदड़, Hindi Good Stories with Morals

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    Hindi Best Good Stories with Morals

    एक और एक ग्यारह

    मूर्ख सिंह और चालाक गीदड़

     

    एक और एक ग्यारह New Hindi Good Stories with Morals

    एक जंगल में एक तमाल के पेड़ पर एक चिड़ा और चिड़ी घोंसला बनाकर रहते थे। प्रसव काल आने पर चिड़िया ने अंडे दिए। एक दिन एक मदोन्मत्त हाथी उधर से आ निकला।

     

    धूप से व्याकुल होने पर वह उस वृक्ष की छाया में आ गया और अपनी सूंड़ से उस शाखा को तोड़ दिया जिस पर चिड़िया का घोंसला या। चिड़ा और चिड़िया तो उड़कर किसी अन्य वृक्ष पर जा बैठे,

     

    किंतु घोंसला नीचे गिर गया और उसमें रखे अंडे चूर-चूर हो गए। अपने अंडे नष्ट होते देखकर चिड़िया विलाप करने लगी। उसके विलाप को सुनकर एक कठफोड़वा वहां आ पहुंचा। कठफोड़वा चिड़िया और चिड़िया से मैत्री भाव रखता था।

     

    परिस्थिति को समझकर उसने कहा-‘अब व्यर्थ के विलाप से क्या लाभ ? जो होना था वह तो हो ही चुका। अब तो धैर्य धारण करने के अतिरिक्त और कोई विकल्प नहीं है।’

     

    कठफोड़वा की बात सुनकर चिड़ा बोला-‘आपका कहना तो ठीक है, किंतु उस मदोन्मत्त ने कारण मेरे बच्चों का विनाश किया है। यदि तुम सच्चे मित्र हो तो उस हाथी को मारने का कोई उपाय बताओ।’

     

    कठफोड़वे बोला-‘तुम्हारा कथन सही है मित्र। मित्र यदि विपत्ति में काम न आए तो उसकी मित्रता का क्या लाभ? मैं तुम्हारी हरसंभव सहायता करूंगा। मेरी ‘वीणारव’ नाम की एक मक्खी मित्र है। मैं उसको बुलाकर लाता हूं।

     

    उसके साथ मिलकर हम कोई उपाय सोचेंगे।’ मक्खी ने जब सारा समाचार सुना तो उसने कहा—’ठीक है, हम लोगों को मिलकर इसका उपाय करना ही चाहिए। जो कार्य एक व्यक्ति के लिए असाध्य होता है,

     

    उसे कई व्यक्ति मिलकर सहज ही सरल बना लेते हैं। कहा भी गया है कि एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। मेरा मेघनाद नाम का एक मेढक मित्र है, मैं उसको भी यहां बुला लाती हूं।’

     

    इस प्रकार जब चारों इकट्ठे हो गए तो मेढक ने कहा-‘आप लोग मेरे कहने के अनुसार कार्य करें तो यह कार्य सरलता से सम्पन्न हो सकता है। सम्मिलित शक्ति के आगे वह हाथी चीज ही क्या है ?

     

    दोपहर के समय मक्खी हाथी के कान के भीतर जाकर भिनभिनाएगी। नाम के अनुरूप ‘वीणा’ मक्खी की आवाज बहुत ही मधुर है। हाथी मक्खी की आवाज सुनकर आनंद से अपनी पलकें बंद कर लेगा।

     

    इस अवसर पर कठफोड़वा उसकी दोनों आंखों पर झपट्टा मारेगा और अपनी तेज चोंच से हाथी की दोनों आंखें फोड़ देगा।

     

    हाथी अंधा होकर पानी की तलाश में व्याकुल होकर इधर-उधर भटके तो मैं किसी गहरे गह्े के समीप अपने परिजनों के साथ बैठकर टर्र-टर्र करूंगा। ‘

     

    हमारे शब्द को सुनकर हाथी सोचेगा कि वह किसी सरोवर के किनारे खड़ा है। बस, जैसे ही वह आगे बढ़ा कि गहरे गटे में गिर जाएगा और अंधा और असहाय होने के कारण तड़प-तड़पकर मर जाएगा।’

     

    ऐसा ही किया गया और उस मदोन्मत्त हाथी का प्राणांत हो गया यह कथा सुनाकर टिट्टिमी बोली-‘हम लोगों को भी अपना एक संघ बना लेना चाहिए। इस प्रकार हम भी अपने उद्देश्य में सफल हो सकते हैं।’

     

    तब टिट्टिम सारस, मयूर आदि दूसरे पक्षियों के पास गया और उसने अपनी व्यथा सुनाई। उन लोगों ने परस्पर विचार-विमर्श करके यह निश्चय किया कि वे सब मिलकर भी समुद्र को सुखाने में असमर्थ हैं,

     

    किंतु गरुड़राज उनके स्वामी हैं अतः उन सबको उनके पास जाकर निवेदन करना चाहिए। वे तीनों गरुड़ के पास गए और अपना सारा दुख पक्षीराज को कह सुनाया।

     

    पक्षीराज गरुड़ ने सोचा कि यदि मैंने इनका दुख दूर न किया तो कोई भी पक्षी मझे अपना राजा स्वीकार न करेगा। तब उसने तीनों को सांत्वना दी और कहा–’तुम लोग निश्चिंत होकर जा सकते हो।

     

    मैं आज ही समुद्र का सारा जल सोखकर उसे जलविहीन बना दूंगा।’ उसी समय विष्णु के दूत ने पक्षीराज से निवेदन किया-‘गरुड़राज। भगवान नारायण ने आपको स्मरण किया है।

     

    वे इसी समय किसी आवश्यक कार्य से अमरावती जाना चाह रहे है। पक्षीराज ने यह सुनकर क्रोध से कहा—’श्री नारायण हरि से कहना कि मेरे स्थान पर किसी अन्य की नियुक्ति कर लें।

     

    जो स्वामी अपने सेवकों के गुणों को नहीं जानता, उस स्वामी की सेवा में रहना उचित नहीं।’ श्रीनारायण हरि का दूत यह सुनकर भौंचक्का-सा रह गया उसने कहा—’वैनतेय !

     

    इससे पहले तो मैंने आपको कभी इतनी क्रोधित अवस्था में नहीं देखा। फिर आज आपके क्रोध करने का क्या कारण है ? पक्षीराज ने कहा- श्री नारायण हरि का आश्रय पाकर ही समुद्र उदंड हो गया है।

     

    उसने मेरे प्रजनन टिटिहरे के अंडों का अपहरण कर लिया है। यदि यमराज उसको उचित दंड नहीं देते तो मैं उनका सेवक बनने के लिए तैयार नहीं हूं। मेरा यही दृढ़ निश्चय है।’

     

    श्री नारायण ने सुना तो उन्होंने गरुड़ को धैर्य बंधाया और कहा—’मुझ पर क्रोध करना उचित नहीं है वैतनेय ! मेरे साथ चलो। मैं तुम्हें टिटिहरे के अंडे समुद्र से वापस दिलवाऊंगा। तत्पश्चात वहां से अमरावती के लिए प्रस्थान करेंगे।’

     

    इस प्रकार स्वयं नारायण हरि समुद्र के पास गए, उसे भय दिखाया। भयभीत समुद्र ने तत्काल टिटिहरे के अंडे वापस कर दिए।

     

    उक्त कथा को समाप्त कर दमनक ने कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि शत्रु के बल को जाने बिना ही जो वैर ठान लेता है, उसको समुद्र की भांति एक तुच्छ शत्रु से भी अपमानित होना पड़ता है।

     

    अतः पुरुष को अपना उद्यम नहीं छोड़ना चाहिए। प्रयल तो करते ही रहना चाहिए।’ यह सुनकर संजीवक ने पूछा-‘मित्र ! मैं कैसे विश्वास कर लूं कि पिंगलक मुझसे रुष्ट है और मुझे मारना चाहता है ?

     

    क्योंकि अभी तक तो वह मुझसे बहुत सद्भाव और स्नेह भाव ही रखता आया है।’ ‘इसमें अधिक जानने को है ही क्या ?’ दमनक ने उत्तर दिया-‘यदि तम्हें देखकर उसकी भौहें तन जाएं और अपनी जीभ से अपने होंठ चाटने लगे तो समझ लेना कि मामला टेढ़ा है।

     

    अच्छा, अब मुझे आज्ञा दो, मैं चलता हूं। किंतु इस बात का ध्यान रखना कि मेरा यह रहस्य किसी पर प्रकट नहीं होना चाहिए। यदि संभव हो तो संध्या के समय यहां से भाग जाना।

     

    क्योंकि कहा भी गया है कि कुटुम्ब की रक्षा के लिए घर के किसी सदस्य का, ग्राम की रक्षा के लिए कुल का, जनपद की रक्षा के लिए ग्राम का और आत्मरक्षा के लिए देश का भी परित्याग कर देना नीतिसंगत है।

     

    प्राणों पर संकट आने पर जो व्यक्ति धन आदि के लिए ममता रखता है, उसके प्राण तो चले ही जाते हैं, प्राण चले जाने पर उसका धन भी अपने-आप ही नष्ट हो जाता है।’ इतना कहकर दमनक करटक के पास चला गया।

     

    करटक ने उससे पूछा-‘कहो मित्र ! कुछ सफलता मिली तुम्हें अपनी योजना में ? दमनक बोला-‘मैंने अपनी नीति से दोनों को एक-दूसरे का वैरी बना दिया है।

     

    अब उन दोनों में एक-दूसरे के प्रति इतनी कटुता पैदा हो गई है कि वे भविष्य में कभी एक-दूसरे का विश्वास नहीं करेंगे।’ सुनकर करटक ने कहा—’यह तो तुमने अच्छा नहीं किया मित्र।

     

    दो स्नेही हृदय में द्वेष का बीज बोना बहुत घृणित कार्य है “दमनक बोला—’तुम नीति की बातें नहीं जानते मित्र, तभी ऐसा कह रहे हो। संजीवक ने हमारे मंत्रीपद को हथिया लिया था। वह हमारा शत्रु या।

     

    शत्रु को परास्त करने में धर्म-अधर्म नहीं देखा जाता। आत्मरक्षा सबसे बड़ा धर्म है। स्वार्थ-साधन ही सबसे महान कार्य है। स्वार्थ-साधन करते हुए कूटनीति से ही काम लेना चाहिए, जैसा चतुरक ने किया था।”

     

    मूर्ख सिंह और चालाक गीदड़ Latest Hindi Good Stories with Morals

    किसी वन में वज्रदंष्ट्र नाम का एक सिंह रहता था । उसके दो अनुसार भी हर समय उसके साथ रहते थे। उनमें से एक था क्रव्यमुख नाम का एक भेड़िया, और दूसरा था चतुरक एक नामक एक गीदड़।

     

    एक दिन सिंह ने एक ऐसी ऊंटनी का शिकार किया जिसके बच्चा पैदा होने वाला था। सिंह ने उसका पेट चीरा तो उसमें से ऊंट का एक छोटा-सा शिशु निकला।

     

    ऊंटनी का मांस तो सिंह और उसने परिवार ने वहीं पर खाकर अपनी भूख मिटा ली, किंतु उस शिशु पर उसे दया आ गई। वह उसे अपने साथ ले आया।

     

    घर लाकर उसने ऊंटनी के शिशु से कहा—’तुम्हें मुझसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं पुत्र। यहां निर्भय होकर विचरण करो। यहां तुमसे कोई कुछ नहीं कहेगा।

     

    और चूंकि तुम्हारे कान शंकु के आकार के हैं, इसलिए मैं तुम्हारा नाम शंकुकर्ण रखता हूँ। अब तुम इसी नाम से पुकारे जाओगे। शनैःशनैः ऊंट का वह बच्चा जवान हो गया, तब भी उसने सिंह का साथ न छोड़ा,

     

    परछाई के समान हमेशा उसके साथ ही लगा रहा। एक दिन जंगल में एक मतवाला हाथी आ निकला और सिंह का उस हाथी से युद्ध हो गया।

     

    उस युद्ध में हाथी ने सिंह को इतना घायल कर दिया कि उसका चलना-फिरना बिल्कुल दूभर हो गया। एक दिन जब सिंह भूख से अधिक पीड़ित हुआ तो उसने अपने अनुचरों से कहा कि वह कोई ऐसा वन्य जीव खोजकर उसके समीप ले आएं जिसका वह घायल होने की अवस्था में भी वध करके अपनी भूख शांत कर सके।

     

    उस दिन तीनों दिन-भर वन में घूमते रहे, किंतु कहीं कुछ न मिला। तब गीदड़ ने सोचा कि क्यों न आज इस ऊंट को ही मारकर अपनी भूख मिटाई जाए?

     

    यही सोचकर उसने शंकु कर्ण से कहा-‘शंकु कर्ण! आज इतना भटकने के बाद भी स्वामी के लिए कोई आहार नहीं मिला। यदि स्वामी भूखे ही मर गए तो फिर हमारा भी विनाश निश्चित है। स्वामी के हित में तुमसे एक बात कहता हूं,

     

    उसे ध्यान से सुनों। तुम ऐसा करो कि दूगुने ब्याज पर स्वामी को अपना-अपना शरीर समर्पित कर दो। इससे तुम्हारा शरीर तो दुगुना हो जाएगा और स्वामी भी भूखे मरने से बच जाएंगे।

     

    शंकु कर्ण बोला ठीक है। किंतु तुम स्वामी को बता देना कि व्यवहार में उन्हें धर्म को साक्षी के रूप में स्वीकार करना होगा ‘ यह कुटिल चाल खेलकर वे दोनों सिंह के पास पहुंचे तब चतुरक ने सिंह से कहा-‘स्वामी !

     

    आहार के लिए कोई जीव नहीं मिला। अब तो सूर्यास्त भी हो गया है। यदि आपको दुगुना शरीर देना स्वीकार हो तो यह शंकुकर्ण धर्म को साक्षी मानकर दुगुने व्याज पर अपना शरीर देने को प्रस्तुत है।

     

    सिंह ने कहा-‘यदि ऐसी बात है तो मुझे कोई आपत्ति नहीं। तुम धर्म को साक्षी मानकर इसका शरीर ले सकते हो।’ स्वीकृति मिलते ही क्रव्यमुख और चतुरक ने मिलकर ऊंट का शरीर चीर डाला।

     

    ऊंट के मर जाने पर सिंह ने चतुरक से कहा—’मैं नदी में स्नान करके आता हूं, तब तक तुम दोनों इस ऊंट के शरीर की रक्षा करना।’

     

    सिंह के चले जाने पर चतुरक सोचने लगा कि ऐसा कौन-सा उपाय हो सकता है, जिससे ऊंट का सारा भाग मेरे हिस्से में ही आ जाए ! कुछ सोचकर उसने अपने साथी भेड़िए से कहा-‘क्रव्यमुख! लगता है तुम्हें बहुत भूख लगी है जब तक स्वामी लौटकर नहीं आते,

     

    चाहे तो तुम थोड़ा-सा मांस खा सकते हो।’ क्रव्यमुख भूखा तो था ही। ऊंट का मांस खाने को लपका। अभी उसने ऊंट तुरंत दूर जा बैठे। का मांस खाना आरंभ ही किया था कि सिंह लौट आया।

     

    दोनों उसे आता देखकर सिंह ने जब भोग लगाना आरंभ किया तो उसकी निगाह ऊंट के हृदय की ओर गई। ऊंट का हृदय अपने स्थान से गायब था। उसने क्रोध से दोनों की ओर देखते हुए पूछा-‘इस शिकार को किसने जूठा किया है?’

     

    सिंह का यह वचन सुनकर भेड़िया गीदड़ की ओर देखने लगा। डर के मारे उसकी कंपकंपी छूट रही थी। चतुरक हंसकर कहने लगा—’अब मेरे मुख की ओर क्या देख रहे हो क्रव्यमुख ?

     

    स्वामी का आहार जूठा करते समय तो तुमने मुझे पूछा भी नहीं, अब अपनी करनी का फल भोगो ” चतुरक की बात सुनकर क्रव्यमुख अपनी जान बचाने के लिए वहां से भाग खड़ा हुआ।

     

    उधर सिंह उस ऊंट को खाने के बारे में सोच ही रहा था कि उसी समय बोझ से लदा हुआ ऊंटों का एक दल उधर से गुजरा। आगे-आगे जाने वाले ऊंट के गले में एक बड़ा सा घंटा लटक रहा था जिससे जोर की ध्वनि हो रही थी।

     

    उस शोर को सुनकर सिंह कुछ भयभीत हो गया, उसने गीदड़ से कहा-‘जाकर देखो तो चतुरक यह कैसा भयानक शोर है ?’ चतुरक ने जाकर देखा कि ऊंटों का एक दल जा रहा है तुरंत उसके दिमाग में एक योजना कंघी।

     

    वह लौटकर, सिंह से बोला कि वह तुरंत वहां से भाग जाए। लगता है यमराज आप पर क्रुद्ध हो गए हैं ऊंटों का कहना है कि आपने असमय ही उनके साथी को मार डाला है। अब वे दंडस्वरूप आपसे एक हजार ऊंट लेने इसी ओर आ रहे हैं।’

     

    सिंह ने जब देखा कि सचमुच एक ऊंटों का दल उसी ओर आ रहा है तो उसे चतुरक की बात में सत्यता जान पड़ी। उसे कोई अन्य मार्ग नहीं सूझा। उसने मृत ऊंट के शरीर को वहीं छोड़ा और सिर पर पैर रखकर वहां से भाग लिया।

     

    इस प्रकार गीदड़ चतुरक अपनी चतुराई से कई दिन तक ऊंट के मांस का भक्षण करता रहा। यह कथा सुनाकर दमनक ने आगे कहा-‘इसीलिए कहता हूं कि दूसरों को कष्ट पहुंचाते हुए भी अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए गुप्त बुद्धि का प्रयोग करने वाला व्यक्ति परिलक्षित नहीं हो सकता।’

     

    दमनक की बात सुनकर करटक को संतोष हो गया। उधर, दमनक के जाने के बाद संजीवक सोचने लगा-‘मैंने बहुत बड़ी मुर्खता की जो एक मांसाहारी से मित्रता कर बैठा।

     

    यदि कहीं अन्यत्र चला भी जाता है तो यह सिंह मुझे वहां भी नहीं छोड़ेगा।’ संजीवक ने इसी प्रकार कई बार विचार किया, फिर वह कुछ निश्चय करके सिंह के पास चला ही गया वहां पहुंचकर वह अपना शरीर सिकोड़कर उसको प्रणाम किए बिना ही दूर जाकर बैठ गया।

     

    संजीवक का बदला हुआ व्यवहार देखकर पिंगलक को दमनक की बात पर विश्वास हो गया। जोर से गर्जना करते हुए उसने एक उछाल भरी और संजीवक पर आक्रमण कर दिया। संजीवक भी फुती से उठ खड़ा हुआ।

     

    वह जोर से दहाड़ा और पिंगलक से भिड़ गया। सिंह के तीक्ष्ण दांतों और नाखूनों के प्रहार का उत्तर वह अपने शक्तिशाली सींगों से देने लगा।

     

    उन दोनों के मध्य ऐसे विकट युद्ध को होते देखकर करटक बोला—’दमनक! तुमने दो मित्रों को लड़वाकर उचित नहीं किया। तुम्हें सामनीति से काम लेना चाहिए था।

     

    संजीवक बेशक शिथिल होकर भूमि पर जा गिरा है, किंतु अभी मरा नहीं है। अभी भी उसमें काफी जान बाकी है। मान लो, उसने उठकर सिंह पर फिर प्रबल प्रहार कर दिया और अपने पैने सींगों से उसका पेट फाड़ डाला तो?

     

    प्रिंगलक मर गया तो हम क्या करेंगे? सच तो यह है कि तुम्हारे जैसे नीच स्वभाव का मंत्री कभी अपने स्वामी का कल्याण कर ही नहीं सकता। अब भी इस युद्ध को रोकने का कोई उपाय है तो करो।

     

    तुम्हारी सारी प्रवृत्तियां विनाशोन्मुख हैं। जिस राज्य के तुम मंत्री होगे, वहां भद्र और सज्जन व्यक्तियों का प्रवेश ही नहीं होगा। परंतु तुम्हें उपदेश देने का क्या लाभ ? उपदेश तो सुपात्र को दिया जाता है।

     

    तुम उसके पात्र नहीं हो, अतः तुम्हें उपदेश देना ही व्यर्थ है। कहीं तुम्हारे कारण मेरी भी हालत वैसी ही न हो जाए जो सूचीमुख चिड़िया की हुई थी।

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