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स्वामी विवेकानंद पर निबंध | Essay On Swami Vivekananda In Hindi

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    स्वामी विवेकानंद पर निबंध | Essay On Swami Vivekananda In Hindi

    Essay On Swami Vivekananda In Hindi: स्वामी विवेकानंद ऐसे महान व्यक्तियों में से हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के नाम को रोशन किया। भारत की संस्कृत के ऐसे महान विद्वान थे, जिन्होंने अपने ज्ञान से सभी भारत के युवाओं को मार्गदर्शन किया।

    आज भी यह भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा के स्त्रोत हैं। इन्हें पावर हाउस कहा जाता है। इनकी संकल्प शक्ति, जिज्ञासा तथा खोज की प्रवृत्ति आज भी हर युवा के लिए प्रेरणा है। स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी ना जाने कई ऐसी घटनाएं है, जो प्रेरणा से भरी हुई है।

     

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध (Essay On Swami Vivekananda In Hindi)

    स्वामी विवेकानंद का जन्म तारीख 12 जनवरी हर साल युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस दिन स्कूल कॉलेजों में भी बच्चों को स्वामी विवेकानंद के जीवन पर निबंध लिखने के लिए दिया जाता है ताकि बच्चे स्वामी विवेकानंद के जीवन घटनाओं से अवगत होकर वे भी विवेकानंद की तरह ही अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए दृढ़ निश्चय कर सके और तब तक ना रुके जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए।

    आज के इस लेख में हम स्वामी विवेकानंद पर निबंध हिंदी में 100, 250, 300, 500, 850 एवं 1000 शब्दों में निबंध लिखकर आए। यह स्वामी विवेकानंद पर निबंध (Swami Vivekananda Essay in Hindi) बहुत ही सरल भाषा में लिखे गये हैं, जो सभी कक्षाओं के विद्यार्थियों के लिए मददगार है।

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध 100 शब्द

    स्वामी विवेकानंद एक ऐसे महान भारतीय युवा थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन सन्यासी रूप में बिता दिया और इसी जीवन में इन्होंने अपने ज्ञान शक्ति से विश्व भर को प्रकाशित किया। स्वामी विवेकानंद का जन्म बंगाल की राजधानी कोलकाता में 12 जनवरी 1863 को हुआ था।

    इनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था, वे पेशे से कोलकाता उच्च न्यायालय में वकालत का कार्य करते थे। इनकी माता का नाम भुनेश्वरी देवी था। स्वामी विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र दत्त था लेकिन बाद में भी अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के शरण में जाने के बाद स्वामी विवेकानंद के नाम से प्रख्यात हुए।

    स्वामी विवेकानंद बचपन से ही अपने पिता के तर्कपूर्ण स्वभाव और माता के धार्मिक स्वभाव से परिचित थे। इसलिए बचपन से ही इन्हें भी तर्क करने की आदत थी। इनके जीवन में इनकी माता की अहम भूमिका रही। इन्होंने अपनी माता से आत्म नियंत्रण सीखा।

    कम उम्र में ही स्वामी विवेकानंद ने गृह त्याग कर भारत भ्रमण करने का निर्णय लिया। यह जगह-जगह पर घूमे और भारत की संस्कृति से परिचित हुए। इसी दौरान 1893 में स्वामी विवेकानंद ने अमेरिका के शिकागो में विश्व धर्म महासभा में दुनिया के सभी लोगों को हिंदू धर्म से परिचित करवाया था।

    शिकागो धर्म सम्मेलन के बाद स्वामी विवेकानंद काफी ज्यादा लोकप्रिय हुए। आगे भी इन्होंने कई जगहों पर भारतीय संस्कृति के महत्व संदर्भ में भाषण दिए। अंत में 4 जुलाई 1902 को ध्यान करते हुए इन्होंने अपने नश्वर शरीर का परित्याग किया।

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध 250 शब्द

    उनका जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। स्वामी विवेकानंद के पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था, जो कोलकाता में न्यायालय में वकील थे और वह हमेशा सच्च की लड़ाई के लिये लोगों को न्यायालय में न्याय दिलाते थे और उनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। उनकी माता धार्मिक स्थलों में ज्यादा रूचि रखती थी, वह हमेशा शिव जी की पूजा अर्चना में अपना जीवन व्यतीत करना चाहती थी। स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्र दत्त हुआ करता था।

    उनकी माता धार्मिक स्थलों में अर्चना पूजा करती थी, वहीँ सब देख कर स्वामी विवेकानंद घर में होने वाली पूजा, रामायण, कीर्तन आदि के ओर खींचे चले जा रहे थे और उनकी इन सब में रूचि बढ़ने लगी। स्वामी विवेकानंद को 16 वर्ष की उम्र में कोलकाता के प्रेसिडेसी कॉलेज में दाखिला कराया और हिन्दू धर्म के सभी ग्रंथों के बारे में अच्छी तरह अध्ययन किया।

    उनको शिक्षा के अलावा खेल-कूद प्रणायाम आदि में उनको बहुत अधिक रूचि थी। हिंदी और संस्कृति के अलावा अन्य सभ्यता और संस्कृति का भी अध्ययन करके उनको काफ़ी अनुभव रहा है। ये सब का अध्ययन करके स्वामी जी ने बहुत सारी डिग्री प्राप्त की थी।

    स्वामी विवेकानंद के बारे में आज हर कोई जनता है, उनके द्वारा किये गए कार्य प्रशंसनीय रहे है। स्वामी विवेकानंद जिनको महान पुरुष माना जाता है। सभी सरकारी कार्यालयों में स्वामी विवेकानंद के फोटो लगे होते है।

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध 300 शब्द

    प्रस्तावना

    स्वामी विवेकानंद एक ऐसे भारत के विद्वान थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन जनकल्याण को समर्पित कर दिया। स्वामी विवेकानंद शारीरिक रूप से जितने मजबूत थे, उतने ही वह बौद्धिक रूप से भी मजबूत है। इन्होंने युवाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत रहने की प्रेरणा दी।

    क्योंकि उनका मानना था कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। इन्होंने समाज में व्याप्त कई बुराई और कुप्रभाव को दूर करने का प्रयास किया। आज ये हर भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा के स्त्रोत हैं।

    स्वामी विवेकानंद का जन्म

    स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता में 12 जनवरी 1863 को नरेंद्र दत्त एवं उनकी पत्नी भुनेश्वरी देवी के यहां हुआ था। पिता कोलकाता में उच्च न्यायालय में वकालत का कार्य करते थे। बुद्धि के मामले में विवेकानंद पर इनके पिता का प्रभाव पड़ा था। क्योंकि उनके पिता को भी बचपन से तर्क पूछने की काफी आदत थी।

    शुरुआत में विवेकानंद का नाम नरेंद्र था। नरेंद्र के पिता हमेशा से ही इन्हें अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के अनुसार जीना सिखाना चाहते थे लेकिन नरेंद्र ऐसा न करते हुए ब्रह्म समाज को स्वीकार किया। क्योंकि बचपन से ही इनकी बुद्धि बहुत तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी बहुत प्रबल थी।

    1884 में विवेकानंद के पिता की मृत्यु हो गई, जिसके कारण घर की सारी जिम्मेदारी इन्हीं पर आ गई। घर की आर्थिक स्थिति भी काफी दयनीय हो गई थी। लेकिन इसके बावजूद विवेकानंद कभी भी अपनी दुखद स्थिति से घबराए नहीं। गरीबी में जीने के बावजूद यह हमेशा ही स्वयं भूखे रहकर दूसरों को भोजन कराते थे।

    स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

    स्वामी विवेकानंद बचपन से ही काफी ज्यादा बुद्धिमान थे लेकिन इनके शिक्षा में काफी ज्यादा रुकावट आई। इन्होंने विद्यालय से ज्यादा अपने घर पर ही पढ़ाई की, उसके बाद कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से इन्होंने आगे की पढ़ाई दर्शनशास्त्र में पूरी की। पिता की मृत्यु के बाद यह अपनी आत्मा की शांति के लिए ब्रह्म समाज में जाकर जुड़ गए।

    स्वामी विवेकानंद के गुरु

    नरेंद्र जब ब्रह्म समाज में जुड़े हुए थे और जब उन्हें वहां भी अपने प्रश्नों का जवाब नहीं मिल रहा था। तब इन्हें दक्षिणेश्वर काली मंदिर के पुजारी श्री रामकृष्ण परमहंस के लोकप्रियता के बारे में पता चला, जिसके बाद नरेंद्र शुरुआत में तर्क करने के विचार से रामकृष्ण परमहंस जी के पास पहुंचे।

    लेकिन वहां पहुंचने के बाद विवेकानंद पर रामकृष्ण परमहंस आध्यात्मिक ज्ञान का काफी ज्यादा प्रभाव पड़ा। इसके बाद यह उनके शिष्य बन गए और आगे स्वामी विवेकानंद के नाम से संयासी जीवन व्यतीत करने लगे।

    संयासी जीवन में प्रवेश करने के बाद स्वामी विवेकानंद ने आगे का अपना पूरा जीवन अपने गुरु राम किशन परमहंस को समर्पित कर दिया। उनके अंतिम दिनों में भी विवेकानंद अपने घर और कुटुंब के नाजुक हालत की परवाह किए बिना गुरु की सेवा करते रहे। अंततः 4 जुलाई 1902 को बेलूर स्थित एक मठ में ध्यान के दौरान इन्होंने भी अपना शरीर त्याग दिया।

     

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध 500 शब्द

    प्रस्तावना

    स्वामी विवेकानंद एक महान विद्वान हिंदू संत थे, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक फैलाया। एक सामान्य बालक की तरह अपना बचपन का जीवन बिताते हुए आगे इन्होंने युवावस्था में संयास ले लिया और अपने पूरे जीवन को जनसेवा में समर्पित कर दिया।

    अपने ज्ञान की रोशनी से इन्होंने हर एक भारतीय युवाओं को जीवन का सही मार्ग दिखाया। आज भी यह युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत हैं। विवेकानंद का जीवन सफर आज भी युवाओं को खूब प्रभावित करते हैं।

    स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन

    स्वामी विवेकानंद पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर से थे। कोलकाता में इनका जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ था। इनकी माता का नाम भुनेश्वरी देवी था और पिता का नाम विश्वनाथ दत्त था, जो पेशे से कोलकाता के उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। विवेकानंद अपने आठ भाई बहनों में से एक थे।

    विवेकानंद पर मानसिक रूप से इनके पिता का काफी ज्यादा ज्यादा प्रभाव था। बुद्धि के मामले में यह बिल्कुल अपने पिता के समान ही गए थे। बचपन से ही इन्हें विभिन्न तरह के तर्क करने की आदत थी। इन्होंने अपनी माता से आत्म नियंत्रण करना सीखा था और आत्म नियंत्रण में इतने माहिर हो चुके थे कि ये जब चाहे तब अपने आपको समाधी में ढाल सकते थे। विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्र था।

    1884 में नरेंद्र के पिता की मृत्यु हो जाने के बाद घर की स्थिति काफी ज्यादा नाजुक हो गई, जिसके कारण इन्हें आगे गरीबी में अपना जीवन बिताना पड़ा। लेकिन इसके बावजूद विवेकानंद हमेशा अपने दृढ़ शक्ति दिखाते ही रहे।

    यह कभी भी अपनी गरीबी जीवन से घबराए नहीं और खुद भूखे रहकर दूसरों को भोजन कराएं, स्वयं के दुख को भूलकर दूसरों के दुख को दूर करने का प्रयत्न करते रहे। समाज में व्याप्त तरह-तरह के कुप्रथा को समाप्त करने के लिए इन्होंने समाज में रहते हुए कई तरह के कार्य किए।

    स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

    नरेंद्र बचपन से ही अध्ययन में काफी ज्यादा बुद्धिमान थे। इनकी तर्कशक्ति हर किसी को आश्चर्य चकित कर देती थी। हालांकि इनकी शिक्षा काफी अनियमित रूप से हुई। संस्कृत भाषा में यह काफी ज्यादा ज्ञान था। इन्होंने आगे की पढ़ाई कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज से दर्शनशास्त्र के विषय में पूरी की।

    हालांकि नरेंद्र को शिक्षा से ज्यादा आत्मशांति के लिए ललाहित थे। आत्म शांति से संबंधित अनेकों तरह के प्रश्न इनके मन में थे, जिसके जवाब को पाने के लिए इन्होंने अपनी पढ़ाई को बीच में ही रोक दिया और ब्रह्म समाज के साथ जुड़ गए।

    स्वामी विवेकानंद के गुरु

    विवेकानंद के गुरु का नाम राम कृष्ण परमहंस था। ब्रह्म समाज में जब यह थे तब परमेश्वर प्राप्ति को लेकर इनके मन में कई प्रश्न थे, जिसका जवाब उन्हें वहां नहीं मिला। उसी दौरान इन्हें रामकृष्ण परमहंस की लोकप्रियता के बारे में जाना तब इन्होंने रामकृष्ण परमहंस से मिलने का निर्णय लिया।

    रामकृष्ण परमहंस से एक बार मिलने पर ही उनके आध्यात्मिक ज्ञान से काफी ज्यादा प्रभावित हुए, जिसके बाद उनके शिष्य बन गए और फिर आगे स्वामी विवेकानंद के नाम से सन्यासी जीवन व्यतीत करने लगे।

    स्वामी विवेकानंद की यात्रा

    मात्र 25 वर्ष की युवा अवस्था में नरेंद्र गेरुआ वस्त्र पहनकर सन्यासी का रूप धारण कर लिया और फिर पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा पर निकल गए। इस रूप में यह नरेंद्र के बजाय स्वामी विवेकानंद के नाम से जाने जाने लगे।

    भारतवर्ष की यात्रा के दरमियां भारत की संस्कृति से पूरी तरीके से परिचित हुए और फिर इसी दौरान 1893 में शिकागो के विश्व धर्म परिषद में इन्हें भारत के प्रतिनिधि के रूप में भेजा गया।

    शिकागो के धर्म परिषद में अपने भाषण के जरिए स्वामी विवेकानंद ने हिंदू धर्म के विषय में लोगों का नजरिया ही बदल दिया और विभिन्न देशों के लोगों को अध्यात्म और वेदांत से परिचित कराया।

    स्वामी विवेकानंद का निधन

    अमेरिका में लगभग 3 वर्षों तक रहने के पश्चात विवेकानंद ने भारत के तत्व ज्ञान की अद्भुत ज्योति वहां के लोगों को प्रदान करते रहे। अमेरिका में भी इन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाओं को स्थापित किया, उसके बाद यह भारत लौट आए और फिर 4 जुलाई 1902 को मेरठ में ध्यान करते हुए इन्होंने अपना देह त्याग किया।

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध 800 शब्द

    प्रस्तावना

    भारत के सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले नरेंद्र नाथ ने अपने ज्ञान और तेज के बल पर विवेकानंद बन गए। अपने कार्यों द्वारा विश्व भर में भारत का नाम रोशन कर दिया। यही कारण है कि आज के समय में भी विवेकानंद लोगों के लिए एक प्रकार से प्रेरणा के स्रोत है।

    स्वामी विवेकानंद का जन्म

    स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता मकर सक्रांति के शुभ त्यौहार के अवसर परंपरागत कायस्थ बंगाली परिवार में हुआ था। स्वामी विवेकानंद का बचपन का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। उनको नरेंद्र या नरेन के नाम से भी पुकारा जाता था।

    स्वामी विवेकानंद के माता-पिता का नाम विश्वनाथ और भुनेश्वरी देवी था। उनके पिता कोलकाता के उच्च न्यायालय में वकील थे और उनकी माता एक धार्मिक महिला था। वह पिता के तर्कसंगत मन और माता के धार्मिक स्वभाव वाले वातावरण के अन्तर्गत सबसे प्रभावी व्यक्तित्व में विकसित हुए।

    वह बाल्यकाल से ही आध्यात्मिक व्यक्ति थे और हिंदू भगवान की मूर्तियां जैसे भगवान शिव हनुमान जी आदि के सामने ध्यान किया करते थे। वह अपने समय के घूमने वाले सन्यासियों और शिक्षकों से भी प्रभावित थे।

    स्वामी विवेकानंद बचपन में बहुत शरारती थे और अपने माता-पिता के नियंत्रण से बाहर थे। वह अपनी माता के द्वारा भूत कहे जाते थे। उनके एक कथन के अनुसार “मैंने भगवान शिव से एक पुत्र की प्रार्थना की थी और उन्हें मुझे अपने भूतों में से एक भूत भेज दिया।”

    स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

    8 साल की उम्र में स्वामी विवेकानंद का चंद्र विद्यासागर महानगर संस्था और 1879 में प्रेसिडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया गया। स्वामी विवेकानंद सामाजिक विज्ञान, इतिहास, कला और साहित्य जैसे विषयों में बहुत अच्छे थे। उन्होंने पश्चिमी तर्क, पश्चिमी संस्कृति और साहित्य का अध्ययन किया था।

    स्वामी विवेकानंद कोलकाता में पढ़ाई के लिये गये हुये थे तो कोलकाता शहर मे काली माताजी के मंदिर मे स्वामी विवेकानंद की मुलाक़ात श्री रामकृष्ण परमहंस से हुई। तभी स्वामी विवेकानंद का चरित्र, व्यवहार और ईश्वर के प्रति भक्ति को देखकर रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद को अपना शिष्य बनाया।

    रामकृष्ण परमहंस से मिलन

    रामकृष्ण परमहंस ने विवेकानंद से प्रश्न किया कि ईश्वर को खोजने के लिये हमें कौन सा मार्ग अपनाना चाहिये। स्वामी ने जवाब दिया कि इस दुनिया मे ईश्वर का अस्तित्व होता है, अगर मनुष्य ईश्वर को पाना चाहता है तो सच्चे मन से अच्छे कर्म करके, मानवजाति की सेवा करके ईश्वर को खोजा जा सकता है।

    1884 में स्वामी विवेकानंद के पिता विश्वनाथ दत्त का देहांत हो गया था, जिस कारण से पूरे परिवार की जिम्मेदारी स्वामी विवेकानंद पर आ गयी थी। उनके घर की आर्थिक समस्याएं बहुत ज्यादा बढ़ गई थी, उनकी परिस्थितियों को देखते हुये रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी जी का साथ दिया।

    रामकृष्ण परमहंस कोलकाता के जिस मंदिर में स्वयं पुजारी हुआ करते थे, अपने साथ स्वामी विवेकानंद को भी ले जाकर पूजा अर्चना करने के लिये पुजारी के रूप मे उनको भी रख लिया। लम्बे समय तक परमहंस कृष्ण गुरु के साथ रहकर स्वामी विवेकानंद भी भगवान की भक्ति लीन हो गये।

    स्वामी विवेकानंद के विचार

    वह बहुत धार्मिक व्यक्ति थे। हिंदू शास्त्रों जैसे रामायण, भागवत गीता, महाभारत, उपनिषदह पुराण आदि में बहुत रुचि रखते थे। वह भारतीय शास्त्रीय संगीत, खेल शारीरिक व्यायाम और अन्य क्रियाओं में भी बहुत रूचि रखते थे। उनको विलियम हैस्टै द्वारा “नरेंद्र वास्तव में एक प्रतिभाशाली है” कहा गया था।

    स्वामी विवेकानंद हिंदू धर्म के प्रति बहुत उत्साहित है और हिंदू धर्म के बारे में देश के अंदर और बाहर दोनों जगह लोगों के बीच नई सोच का निर्माण करने में भी सफल हुए थे। वह पश्चिम में ध्यान योग और आत्म सुधार के अन्य भारतीय आध्यात्मिक रास्तों को बढ़ावा देने के लिए भी सफल हुए। स्वामी विवेकानंद भारत के लोगों के लिए एक राष्ट्रवादी आदर्श थे।

    उनके राष्ट्रवादी विचारों से कई भारतीय नेताओं का ध्यान आकर्षित हुआ। भारत की आध्यात्मिक जागृति के लिए श्री अरविंद ने उनकी प्रशंसा भी की थी। स्वामी विवेकानंद को महान हिंदू सुधारक के रूप में भी जाना जाता है और उन्होंने हिंदू धर्म का बढ़ावा भी दिया।

    महात्मा गांधी द्वारा भी स्वामी विवेकानंद की प्रशंसा की गई। उनके विचारों ने लोगों को हिंदू धर्म का सही अर्थ समझने का कार्य किया और वेदांता और हिंदू अध्यात्म के प्रति पाश्चात्य जगत के नजरियों को भी बदला।

    स्वामी विवेकानंद की मृत्यु

    स्वामी विवेकानंद के अनेक कार्यों के लिए उन्हें चक्रवर्ती राजगोपालाचारी स्वतंत्र भारत के प्रथम गवर्नर जनरल ने कहा कि “स्वामी विवेकानंद वह व्यक्ति थे, जिन्होंने हिंदू धर्म तथा भारत को बचाया है।” उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के द्वारा आधुनिक भारत का निर्माता भी कहा गया। ऐसा भी कहा जाता है कि 4 जुलाई 1902 में उन्होंने बेलूर मठ में 3 घंटे ध्यान साधना करते हुए अपने प्राणों का त्याग भी कर दिया था।

    निष्कर्ष

    स्वामी विवेकानंद के जीवन में कई भिन्न-भिन्न प्रकार की विपत्तियां आई, लेकिन उन सभी विपत्तियों के बावजूद भी स्वामी विवेकानंद कभी सत्य के मार्ग से नहीं हटे और अपने जीवन भर लोगों को ज्ञान देने का कार्य किया। साथ ही अपने इन्हीं विचारों से उन्होंने पूरे विश्व को भी प्रभावित किया तथा भारत और हिंदुत्व का नाम रोशन करने का कार्य किया।

    स्वामी विवेकानंद पर निबंध 1000 शब्द

    प्रस्तावना

    स्वामी विवेकानंद एक महान हिंदू संत और नेता थे, जो आज भी भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा है। इन्होंने अपने ज्ञान के बलबूते देश विदेश तक भारतीय संस्कृति को फैलाया और भारत के प्रति लोगों के नजरिए को बदला।

    स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन

    विवेकानंद का जन्म पश्चिम बंगाल राज्य के कोलकाता शहर में 12 जनवरी 1863 को विश्वनाथ दत्त के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम भुनेश्वरी देवी था। विवेकानंद के बचपन का नाम नरेंद्र था। यह अपने 8 भाई बहनों में से एक थे।

    इनके पिता पेशे से कोलकाता के उच्च न्यायालय में वकील के रूप में कार्य करते थे। इनकी माता धार्मिक प्रवृत्ति की थी। अपनी माता से इन्होंने आत्म नियंत्रण और आध्यात्मिकता से संबंधित काफी ज्ञान प्राप्त किया था। अपनी माता से ही इन्हें हिंदू धर्म और सनातन संस्कृति को करीब से समझने का मौका मिला था।

    नरेंद्र की माता बचपन से इन्हें रामायण और महाभारत की कहानियां सुनाया करती थी। इसी कारण नरेंद्र को बचपन से ही आध्यात्मिकता के क्षेत्र में लगाव होने लगा था। जब भी वे इस तरह के धार्मिक कथाओं को सुनते तो उनका मन हर्षोल्लास से भर जाता और ध्यान मग्न हो जाते।

    इनके पिता पाश्चात्य संस्कृति को काफी ज्यादा पसंद करते थे। जब तक इनके पिता जीवित थे, घर की स्थिति काफी सुख संपन्न वाली थी। इनके पिता हमेशा से ही नरेंद्र को पाश्चात्य संस्कृति के रंग में ढालना चाहते थे।

    इसीलिए वे नरेंद्र को अंग्रेजी भाषा में शिक्षा दिलवाना चाहते थे। लेकिन नरेंद्र को अंग्रेजी भाषा से बिल्कुल लगाव नहीं था। हालांकि ये प्रतिभा के धनी थे, लेकिन इनका असली लक्ष्य तो आत्म शांति और परमात्मा प्राप्ति था।

    स्वामी विवेकानंद की शिक्षा

    विवेकानंद ने अपने प्रारंभिक शिक्षा स्कॉटिश चर्च कॉलेज और विद्यासागर कॉलेज से की। उसके बाद इन्होंने आगे की पढ़ाई के लिए कोलकाता के प्रेसिडेंसी कॉलेज में प्रवेश लेने के लिए एंट्रेंस एग्जाम दिया, जिसमें विवेकानंद प्रथम स्थान पर आए थे।

    यहां पर इन्होंने दर्शनशास्त्र से आगे की पढ़ाई पूरी की। हालांकि इसके अतिरिक्त इन्हें सामाजिक विज्ञान, कला, धर्म, साहित्य, इतिहास, संस्कृत और बंगाली साहित्य में भी बहुत दिलचस्पी थी।

    स्वामी विवेकानंद की उनके गुरु से मुलाकात

    स्वामी विवेकानंद को हमेशा से ही आत्मज्ञान चाहिए था और उन्हें इससे संबंधित कई तरह के प्रश्न थे, जिसके जवाब को पाने के लिए ब्राह्मण समाज के साथ जुड़े। लेकिन इन्हें वहां भी कोई जवाब नहीं मिला तब इन्होंने ब्रह्म समाज के नेता महा ऋषि देवेंद्रनाथ ठाकुर के द्वारा दक्षिणेश्वर के काली मंदिर के पुजारी रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनी।

    इन्होंने विवेकानंद को कहा कि उनके पास सभी तरह के प्रश्नों का उत्तर है। तब विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस को मिलने के लिए जाते हैं। पहली मुलाकात में ही विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस से पूछते हैं कि क्या आपने ईश्वर को देखा है?

    दरअसल विवेकानंद से इस प्रश्न को कई लोगों ने पूछा था लेकिन उनके पास इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं था। इसीलिए वे रामकृष्ण परमहंस को यह प्रश्न पूछ कर उनके ज्ञान से बारे में अवगत होना चाहते थे।

    विवेकानंद के प्रश्न पर रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें उत्तर दिया कि हां मैंने ईश्वर को देखा है, मैं तुम में ईश्वर देख सकता हूं। ईश्वर सभी के अंदर व्याप्त है। विवेकानंद रामकृष्ण परमहंस के इस उत्तर से संतुष्ट होते हैं। उनके मन को शांति मिल जाती है, जिसके बाद वे रामकृष्ण परमहंस को अपना गुरु बना लेते हैं।

    स्वामी विवेकानंद की यात्रा

    स्वामी विवेकानंद ने मात्र 25 वर्ष की उम्र में अपना साधारण जीवन छोड़ सन्यासी जीवन को अपना लिया था। उससे पहले वे नरेंद्र के नाम से जाने जाते थे लेकिन सन्यासी जीवन ग्रहण करने के बाद ये स्वामी विवेकानंद कहलाए।

    उसके बाद इन्होंने भारत दर्शन का निर्णय लिया और फिर निकल पड़े पैदल भारत दर्शन करने और भारतवर्ष की यात्रा करके उन्होंने भारत कि सनातन धर्म भारत की संस्कृति से पूरी तरीके से परिचित हुए।

    स्वामी विवेकानंद और श्री रामकृष्ण परमहंस

    सन 1893 में स्वामी विवेकानंद भारत के प्रतिनिधि के रूप में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म परिषद में गए थे और वहां पर उनके द्वारा दिया गया भाषण आज भी युवा पीढ़ी को प्रेरित करती है। शिकागो के भाषण के माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति को पहली बार दुनिया के सामने रखा और हिंदुत्व धर्म से लोगों को परिचित कराया।

    वहां पर विश्व के कई धर्मगुरु आए थे, जो अपने धर्म कीकिताबें लेकर गए थे। स्वामी विवेकानंद अपने साथ भागवत गीता लेकर गए थे। कहा जाता है कि यूरोप अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत तुच्छ नजर से देखते थे।

    जिस कारण वहां पर स्वामी विवेकानंद की निंदा करने के लिए लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि उन्हें सम्मेलन में बोलने का ही मौका ना दिया जाए। लेकिन एक अमेरिकन प्रोफेसर स्वामी विवेकानंद ने अनुरोध किया कि उन्हें केवल दो ही मिनट चाहिए, उतने में ही वे अपने भाषण को पूरा कर लेंगे।

    हालांकि वह प्रोफेसर आचार्य चकित रह गया कि इतने कम समय में ये कैसे अपने धर्म से लोगों को अवगत करा पाएंगे। लेकिन विवेकानंद के लिए इतना समय काफी था और इतने समय में उनके द्वारा बोले गये दो शब्द भाइयों और बहनों को ही सुनकर श्रोता गणों के तालियों की गड़गड़ाहट से सम्मेलन का भवन पूरी तरह गूंज उठा।

    इस तरह उसके बाद स्वामी विवेकानंद ने वैदिक दर्शन का ज्ञान दिया, सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व किया और इस भाषण से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की एक नई छवि सामने आई।

    इतना ही नहीं अमेरिका में स्वामी विवेकानंद लगभग 3 सालों तक रहे और 3 वर्षों तक वे वहां के लोगों में भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म के बारे में जानकारी देते रहे। वहां पर उन्होंने रामकृष्ण मिशन की कई शाखाएं भी स्थापित की। इस तरह अमेरिका में भी कई अमेरिकन विद्वान विवेकानंद के शिष्य बने।

    स्वामी विवेकानंद का शिकागो भाषण

    धर्म के नाम पर कट्टरता की भावना रखने वाले संप्रदायिक लोगों के ली विवेकानंद ने कहा था कि जिस तरह भिन्न भिन्न नदियां अंत में एक समुद्र में ही जाकर मिल जाती है, ठीक उसी तरह विश्व की जितनी भी धर्म है, अंत में वह ईश्वर तक ही पहुंचती है। इसीलिए धर्म के नाम पर कट्टरता की भावना को त्याग कर सौहार्द और भाईचारा की भावना रखनी चाहिए तभी विश्व और मानवता का विकास हो सकता है।

    रामकृष्ण मिशन की स्थापना

    रामकृष्ण परमहंस के शरण में आने के बाद स्वामी विवेकानंद ने अपना पूरा जीवन उनके सेवा में समर्पित कर दिया। अंत समय में रामकृष्ण परमहंस कैंसर जैसी भयानक बीमारी से ग्रसित हो गए और ऐसे स्थानों में स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु की बहुत देखभाल की।

    जब उनकी मृत्यु हो गई तब उन्होंने अपने गुरु को समर्पित रामकृष्ण मिशन की स्थापना की, जो बाद में रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन के नाम से जाना गया। इस मिशन की स्थापना इन्होंने 1 मई 1998 में की थी, जिसका लक्ष्य नए भारत का निर्माण करना था। इस मिशन के तहत कई स्कूल, कॉलेज और अस्पताल का निर्माण किया गया। विवेकानंद ने इसके बाद बेलूर मठ की स्थापना की।

    स्वामी विवेकानंद की मृत्यु

    स्वामी विवेकानंद युवाओं को हमेशा शारीरिक मजबूती पर जोर देने के लिए कहते थे। उनका मानना था कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का वास होता है। इसीलिए गीता पढने से अच्छा फुटबॉल खेलना है।

    लेकिन कहा जाता है कि अंत समय में स्वामी विवेकानंद खुद भी एक बीमारी से ग्रसित हो गए थे, जिस कारण मेरठ के मठ में 4 जुलाई 1902 को मात्र 39 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई।

    निष्कर्ष

    विवेकानंद एक ऐसे महान और विद्वानों संत थे, जिन्होंने अपने ज्ञान और शब्दों के द्वारा विश्व भर में हिंदू धर्म के विषय में लोगों का नजरिया ही बदल दिया। स्वामी विवेकानंद ने सभी को सच्चे धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि सच्चा धर्म वह होता है, जो भूखे को अन्न दें, दुनिया के दुखों को दूर करें।

    यहां तक कि विवेकानंद ने स्वयं समाज के लोगों के बीच रहते हुए समाज में व्याप्त कुप्रथा को खत्म करने का प्रयास किया। स्वामी विवेकानंद ने अपने ज्ञान के बलबूते एक ऐसी मशाल को प्रज्वलित की, जो सदैव आलौकिक रहेगा और जीवन पर्यंत वे अमर रहेंगे, उनके विचार अमर रहेंगे।

     

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