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विष्णुरूपी जुलाहा Bhagwan ki Kahaniya हिंदी में

    विष्णुरूपी जुलाहा Bhagwan ki Kahaniya हिंदी में

    किसी नगर में एक बढ़ई और एक जुलाहा रहते थे, जो परस्पर घनिष्ट मित्र थे। उनकी मित्रता बाल्यकाल से चली आ रही थी। एक बार नगर के एक मंदिर में देव-दर्शन के लिए मेला लगा। उस मेले में देश-देशांतरों से दर्शनार्थी आए,

     

    और उनके साथ जीविका के लिए धन कमाने के लिए नट, नर्तक, गायक आदि भी आए। जुलाहा और बढ़ई मेले में भ्रमण कर रहे थे कि उन्होंने एक हथिनी पर सवार सर्वांगसुंदरी राजकन्या को देखा।

    राजकन्या का रूप देखकर जुलाहा मंत्र मुग्ध-सा हो गया। वह उसकी ओर एकटक निहारता रहा और कामाग्नि से पीड़ित हो मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा। उसका मित्र यह देखकर बहुत दुखी हुआ।

    वह किसी प्रकार उसको वहां से उठाकर अपने घर ले आया। घर लाकर उसने उसका उपचार करवाया, जिसके कारण वह किसी प्रकार स्वस्थ हो गया। तब बढ़ई ने उससे पूछा-‘तुम्हें सहसा क्या हो गया था मित्र,

    जो तुम मूर्छित हो गए थे ?’ बढ़ई के प्रश्न के उत्तर में जुलाहे ने अपनी मनोव्यथा बता दी। किंतु साथ ही उसने यह भी बता दिया कि क्योंकि राजकन्या उसकी पहुंच से बाहर है और वह उसके बिना जीवित नहीं रह सकता;

    अतः शीघ्र ही उसकी अन्तिम क्रिया का उपाय भी करना होगा। यह सुनकर बढ़ई ने उसे आश्वस्त किया और कहा-‘मित्र | तुम चिन्ता मत करो। मैं आज रात्रि को ही उसके साथ तुम्हारा संगम करा सकता हूं।’

    बढ़ई ने उसी समय काठ का एक गरुड़ तैयार किया और मंत्र द्वारा उसके संचालन की व्यवस्था भी कर दी। फिर उसने जुलाहे को विष्णु की भांति सजाया और बोला-‘मित्र ! रात्रि के समय इस गरुड़ पर बैठकर,

    विष्णु का वेश धारण कर तुम राजकन्या के शयन-कक्ष में पहुंच जाना। वहां पहुंचकर वाक्चातुर्य से राजकन्या को प्रभावित कर अपना अभीष्ट सिद्ध कर लेना। जुलाहे ने वैसा ही किया।

    राजकन्या के शयनकक्ष में पहुंचकर जब उसने कहा कि वह साक्षात विष्णु है और अपनी पत्नी लक्ष्मी को क्षीरसागर में छोड़कर उसके साथ रमण करने के लिए आया है तो राजकन्या ने कहा-‘पर मैं तो एक मानुषी हूं देव !

    मैं भगवान के साथ कैसे रमण कर सकती हूं?’ बात बिगड़ती देखकर जुलाहे ने कहा-‘रूपवती ! तुम नहीं जानती कि तुम राधा नाम की मेरी उस समय की प्रेमिका हो जब मैंने कृष्ण का अवतार लिया था।

    अब तुमने इस राजकुल में जन्म लिया है तो मैं तुमको प्राप्त करने के लिए यहीं चला आया हूं।’ राजकन्या का संशय दूर हो गया। उसने कहा-‘भगवन ! यदि यह सत्य है तो मुझे बड़ी प्रसन्नता है। फिर भी,

    आप मेरे पिता से निवेदन कीजिए, उनको भी बड़ी प्रसन्नता होगी और वे सहर्ष मेरा हाथ आपके हाथ में दे देंगे।’ विष्णुरूपी जुलाहा बोला-‘राजकन्या ! मैं साधारण मनुष्य की दृष्टि में नहीं आ सकता।

    तुम मेरे साथ गंधर्व विवाह करो और मेरे साथ रमण करो। अन्यथा में तुम्हारे समस्त राजकोट को अपने शाप से भस्म कर दूंगा।’ इतना कहकर जुलाहा गरुड़ से उतरा और उसका हाथ पकड़कर उसे पलंग पर ले गया।

    इस प्रकार रात्रि-भर जुलाहा वहां रहा और सुबह दूसरों की दृष्टि में आने से पहले ही अपने घर को लौट गया। उस दिन से वह नित्यप्रति उस राजकन्या के साथ आनंद का समय व्यतीत करता रहा।

    राजकन्या के व्यवहार में इससे परिवर्तन आने लगा। राजभवन के अंतःपुरस्थ कर्मचारियों को इससे कुछ संदेह होने लगा। कुछ और समय बीत जाने पर जब उनको अपने संदेह की पुष्ि होती दिखाई दी ,

    तो उन्होंने महाराज को जाकर इस विषय में बताया-‘महाराज! यद्यपि हम लोगों को किसी प्रकार भी पता नहीं लग पाता, तयापी इतना निश्चित है कि रात्रि के समय राजकुमारी के कक्ष में कोई पुरुष अवश्य प्रवेश करता है।

    यह सुनकर राजा को चिंता होने लगी। उसने रानी को इस विषय में बताया तो उसको भी चिंता होने लगी यह तुरंत राजकुमारी के पास गई और जब देखा कि पुत्री की मुखाकृति महाराज के कथन की पुष्टि करती है

    तो वह क्रोधित होकर अपनी पत्नी से कहने लगी-‘अरी कुलक्षिणी ! तुमने यह क्या करना आरंभ कर दिया है? कौन है वह, किसकी मौत आई है, जो रात के अंधकार में तेरे कक्ष में प्रवेश करता है?

    क्रोधित माता को लज्जित मुख से राजकन्या ने बताया कि रात को साक्षात विष्णु भगवान उसके शयनकक्ष में आते हैं। यदि उसको विश्वास न हो तो वह खिड़की से रात्रि के समय उनको देख सकती है।

    किंतु उसे भगवान के सम्मुख प्रकट नहीं होना होगा, अन्यथा वे क्रुद्ध होकर शाप दे देंगे और स्वयं अंतर्धान हो जाएगे। रानी को अपनी कन्या की बात पर विश्वास हो गया और वह संतुष्ट होकर राजा के पास लौट गई।

    राजा ने जब यह सुना तो उसको वह एक दिन बिताना सौ वर्ष के समान लगने लगा। रात्रि में साक्षात विष्णु भगवान के दर्शन की उत्सुकता में राजा-रानी बहुत बेचैन हो गए।

    जैसे-तैसे करके रात आई तो भोजन आदि से निवृत्त होकर राजा-रानी अपनी बेटी के शयन कक्ष की खिड़की के निकट आकर बैठ गए।

    अर्द्धरात्रि के पूर्व ही उन्होंने देखा कि आकाश से गरुड़ पर सदार भगवान विष्णु उनकी बेटी के शयनकक्ष के द्वार पर उतर रहे हैं। यह देखकर उनकी प्रसन्नता का पारावार न रहा।

    राजा सोचने लगा कि जिसकी कन्या के साथ साक्षात भगवान ने गंधर्व विवाह कर लिया हो उससे बढ़कर इस कलिकाल में और कौन भाग्यशाली हो सकता है।

    इतना विचार करते ही राजा को यमंड होने लगा और उसने निरंकुश रूप से शासन चलाना आरंभ कर दिया। सीमावर्ती राजाओं ने जब देखा कि राजा की मनमानी बढ़ती जा रही है,

    और समय-समय पर सचेत करने पर भी उस पर कोई प्रभाव नहीं हो रहा है तो उन्होंने मिलकर उस पर आक्रमण कर दिया। शत्रुओं द्वारा आक्रमण की बात जब राजा ने सुनी तो उसे कोई विशेष चिंता न हुई।

    उसने रानी से कहा-‘अपनी पुत्री को कहो कि भगवान विष्णु से कहे कि इस युद्ध में हमारी सहायता करें। रानी अपनी पुत्री के पास पहुंची और उससे कहा-‘बेटी !

    तुम्हारी जैसी कन्या और भगवान नारायण जैसे जामाता के होते हुए हम पर पड़ोसी राज्यों के राजा आक्रमण कर रहे हैं। तुम आज रात को भगवान से इस विषय में बात करना और कहना कि वे तुरंत अपनी शक्ति से हमारे शत्रुओं का विनाश कर दें।’

    उस रात्रि को जब विष्णु रूपी जुलाहा आया तो राजकुमारी ने उसको उसी प्रकार कह दिया जैसा उसकी माता ने समझाया था। तब विष्णु रूपधारी वह जुलाहा कहने लगा-‘सुनो ! तुम निश्चिंत रहो।

    तुम्हारे पिता के शत्रुओं की संख्या चाहे कितनी ही क्यों न हो, मैं जिस दिन चाहूंगा, अपने सुदर्शन चक्र से उन सबका शिरच्छेद कर दूंगा।’

    उसका परिणाम यह हुआ कि कुछ ही दिनों में शत्रु राजाओं ने न केवल सारे राज्य पर ही अधिकार कर लिया; अपितु वे उसके दुर्ग तक चले आए।

    तब भी राजा आश्वस्त रहा कि भगवान विष्णु उसकी रक्षा करेंगे और शत्रुओं का सर्वनाश कर उनका भी राज्य उसको दिलवा देंगे। जब राजा ने देखा कि अब तो दुर्ग का द्वार टूटने ही वाला है तो उसने पुनः

    रानी के माध्यम से अपनी पुत्री को कहलवाया। जुलाहे ने जब यह सुना तो कि दुर्ग भी रहने वाला है तो उसको भी चिंता होने लगी कि यदि दुर्ग ही न रहा तो राजकुमारी कहां मिलेगी!

    अतः उसने निश्चय किया कि वह युद्ध के समय आकाश में अपने गरुड़ पर सवार होकर शत्रु सेना के सम्मुख उपस्थित होगा।

    संभव है उसको विष्णु जानकर वे प्रभावित होकर पलायन करें और इधर राजा की सेना उत्साहित होकर शत्रु का पीछा कर उनको सीमा पार खदेड़ दे। कहा भी गया है कि विषरहित सर्पो को भी अपने फनों को फैलाते रहना चाहिए।

    विष हो या न हो, किंतु फनों की भीषणता तो भयावह होती ही है। यदि दैवयोग से दुर्ग की रक्षा करते समय मेरी मृत्यु हो गई तो भी अच्छा ही होगा, क्योंकि कहा गया है कि गौ,

    ब्राह्मण, स्वामी, स्त्री तथा दुर्ग की रक्षा करने में जो व्यक्ति अपने प्राणों का परित्याग करता है, वह स्वर्ग लोक का अधिकारी होता है। ऐसा निश्चय कर जुलाहे ने राजकन्या से कहा-‘सुभगे !

    शत्रुओं को सम्पूर्ण रूप से नष्ट करने के बाद ही अब मैं अन्न-जल ग्रहण करूंगा। तुम जाकर अपने पिता से कह दो कि वे प्रातःकाल होते ही अपनी विशाल सेना के साथ शत्रु से जाकर युद्ध करें।

    मैं आकाश में रहकर उनके समस्त शत्रुओं को निस्तेज कर दूंगा।’ जुलाहे के ऐसे वचन सुनकर राजपुत्री ने जाकर सारा वृत्तांत अपने पिता को सुना दिया।

    पुत्री की बात सुन राजा बहुत प्रभावित हुआ और प्रातः होते ही अपनी विशाल सेना को लेकर शत्रुओं से युद्ध करने के लिए निकल पड़ा।

    उधर जुलाहा भी अपने मरने का निश्चय करके अपना चक्र लेकर गरुड़ पर चढ़कर आकाश मार्ग से युद्ध करने के लिए चल दिया। त्रिकालदर्शी भगवान से यह सब कब तक छिपा रहता? उन्होंने अपने वाहन गरुड़ से कहा-‘पक्षीराज !

    क्या तुम्हें मालूम है कि जुलाहा हमारा रूप धारण कर किस प्रकार राजकन्या को ठग रहा है ? ‘जानता हूं प्रभु। पर, क्या किया जा सकता है?’

    ‘जुलाहा मरने के लिए प्रतिबद्ध होकर आज युद्ध भूमि में गया है यह तो निश्चित है कि शत्रुओं के बाणों द्वारा आज उसका प्राणांत हो जाएगा तब सारी प्रजा यही कहेगी कि क्षत्रिय सेना के बाणों से गरुड और भगवान दोनों ही पराजित हो गए हैं।

    इस अपवाद के प्रसारित होते ही लोग हमारी पूजा करना बद कर देंगे। अतः उचित यही रहेगा कि हम दोनों जुलाहे और उसके गरुड़ के शरीर में प्रविष्ट होकर अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए राजा के शत्रुओं का विनाश करें।

    और वही हुआ। राजा के शत्रुओं को पराजय का मुंह देखना पड़ा। उधर, जुलाहे ने जब यह देखा कि राजा की विजय हो गई है तो वह आकाश मार्ग से नीचे उतरकर राजा के पास आया।

    जुलाहे ने आरंभ से लेकर अंत तक का सारा वृतान्त राजा को यथावत् सुना दिया। जुलाहे का साहस देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सभी प्रजाजनों के सामने राजकन्या का विवाह उस जुलाहे के साथ कर दिया।

    पुरस्कारस्वरूप कई ग्राम भी राजा ने उसे दे दिए। तबसे वह जुलाहा उस राजकन्या के साथ जीवन का आनंद लेकर सुखपूर्वक अपना जीवन व्यतीत करने लगा।

    यह कथा सुनाने के बाद दमनक ने कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि षड्यंत्र भी सोच-समझकर किया जाए तो उसका रहस्य ब्रह्मा को भी ज्ञात नहीं होता है।’ दमनक की बात सुनकर करटक ने कहा-‘मित्र ! यद्यपि तुम्हारा कहना ठीक है,

    फिर भी मैं विश्वस्त नहीं हूं क्योंकि संजीवक अत्यंत बुद्धिमान है और सिंह का स्वभाव अत्यंत क्रोधी है। यद्यपि तुम भी प्रतिभासम्पन्न हो, फिर भी पिंगलक के पास से संजीवक को हटाने में तुम समर्थ हो सकोगे, इसमें मुझे संदेह है।

    दमनक ने कहा-‘मित्र ! असमर्थ होते हुए भी तुम मुझे समर्थ समझो। कहा भी गया है कि उपाय के द्वारा जिस कार्य को किया जा सकता है,

    उसे पराक्रम से नहीं किया जा सकता। एक मादा काग ने सोने के कंठहार के पर एक विषधर काले नाग को भी मरवा डाला था।

     

    लोभी संन्यासी Latest Bhagwan ki Kahaniya

    किसी निर्जन प्रदेश में संन्यासियों का एक मठ या। वहां देवशर्मा नाम का एक संन्यासी निवास करता था। मठ में आने वाले चढ़ावे के कारण उसके पास बहुत-सा धन एकत्र हो गया था।

    धन के इकट्ठा हो जाने के कारण वह किसी पर विश्वास नहीं करता था और उस संचित घन की दिन-रात निगरानी करता था।

    दूसरों के धन को हड़पने वाले आषाढ़ मूर्ति नामक एक पूर्त ने संन्यासी के कक्ष में रखी उस द्रव्यराशि को देखकर सोचा कि किसी तरह यह धन हड़पना चाहिए।

    यही सोचकर आषाढ़ मूर्ति देवी शर्मा की शरण में पहुंचा और उसको प्रणाम कर विनीत भाव से बोला-‘भगवन् । यह संसार असार है, पर्वत से गिरने वाली नदी की भांति यह यौवन भी पतनोन्मुख है,

    मानव जीवन क्षणभंगुर है, संसार के सारे संबंध स्वप्न की भांति असत्य हैं। यह सब तो मैं समझता है, कृपा कर अब आप यह बताइए कि वह कौन-सा कर्म है जिसको करने से मैं इस भवसागर को पार कर सके ?

    आषाढ़ मूर्ति की बात सुनकर देवशर्मा ने कहा-‘तुम तो इस आयु में ही वैराग्य की बातें करने लगे हो वत्स तुम धन्य हो। बस तुम शिव मंत्र की दीक्षा ले लो तो तुम्हारा कल्याण हो जाएगा। तो भगवन्, आप ही मुझे दीक्षा दीजिए।

    आपसे बढ़कर कौन श्रेष्ठ है ! ‘ठीक है। मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा। किंतु तुम रात्रि में यहां नहीं रह सकोगे तुम्हें रहने के लिए किसी अन्य जगह का प्रबंध करना होगा तुम मठ के द्वार पर तृण की कुटिया बनाकर रह सकते हो।

    यही हम दोनों के लिए श्रेयस्कर रहेगा। आषाढ मूर्ति बोला-‘जैसा आपका आदेश। मेरे लिए तो आपका आदेश ही सर्वोपरि है।’ इस प्रकार अपने वाक्जाल में देवशर्मा को फंसाकर आषाढ़ी मूर्ति उसका शिष्य बन गया।

    अब वह नित्यप्रति देवशर्मा की सेवा सुश्रुषा में ही लगा रहने लगा। इससे देवशर्मा तो प्रसन्न हो गया किंतु धन की वह पोटली उसके शरीर से कभी अलग नहीं हुई।

    यह सोचकर आषाढ़ मूर्ति सोचने लगा कि यह धन इस प्रकार तो मेरे हाथ आएगा नहीं, क्यों न इसकी हत्या करके यह धन प्राप्त किया जाए !

    आषाढ़ मूर्ति ऐसा विचार कर ही रहा था कि देवशर्मा के किसी शिष्य का पुत्र उसको निमंत्रित करने के लिए आया। निमंत्रण पाकर देव शर्मा आषाढ़ मूर्ति को साथ लेकर चल पड़ा। आगे चलकर एक नदी मिली।

    देवशर्मा ने अपनी पोटली गुदड़ी में छिपा ली और आसादमूर्ति से बोला-‘मैं शौच करने के लिए जाता है, तब तक तुम भगवान शिव की प्रतिमा से युक्त इस गुदड़ी की सावधानी से रक्षा करते रहना।’

    इस प्रकार देवशर्मा उसे वह गुदड़ी पकड़ाकर चला गया। ज्योंही देवशर्मा आंखों से ओझल हुआ, आसादमूर्ति वह गुदड़ी उठाए वहां से भाग लिया। देवशर्मा को अपने शिष्य पर पूरा विश्वास था,

    जब वह शौच करने निश्चिंतता से बैठा तो उसने देखा कि सामने मेट्रो का एक झुंड जा रहा है और उसमें दो मेढ़े परस्पर लड़ रहे हैं। वे एक-दूसरे से अपना सिर टकरा रहे थे और उनके सिरों से रक्त टपक रहा था।

    पास में ही एक गीदड़ मौजूद था जो उनके सिरों से टपकते रक्त को बार-बार चाट लेता था। देवशर्मा सोचने लगा कि यह गीदह कितना मूर्ख है, यह नहीं जानता कि यदि परस्पर लड़ते मेदों के बीच फंस गया तो इसका प्राणान्त हो जाएगा।

    इसी प्रकार का विचार करता हुआ जब देवशर्मा वापस अपने स्थान पर लौटा तो उसने आषाढ मूर्ति को गायब पाया। उसने अपनी गुदड़ी टटोली तो धन की पोटली नहीं मिली। अब तो देवशर्मा की आंखों के सामने अंधेरा छा गया।

    वह भमि पर गिरा और बेहोश हो गया। होश आया तो वह बुरी तरह विलाप करने लगा। फिर वह रोता लापता हुआ आषाढ़ मूर्ति के पदचिह्नों का पीछा करता हुआ एक ओर चल पड़ा। सूर्यास्त के समय वह एक ग्राम में जा पहुंचा।

    पहला ही पर किसी जुलाहे का या। वह जुलाहा मद्यपान के लिए अपनी पली को साथ लेकर नगर की ओर जा रहा था। देवशर्मा ने जब उससे आश्रय मांगा तो जुलाहा अपनी पली को उसके पास छोड़कर स्वयं मद्यपान के लिए नगर को चल दिया।

    जुलाहे की पली दुश्चरित्र थी। अतिथि सेवा में घर पर रह जाने की बात सुनकर वह प्रसन्न हुई। उसको अपने प्रेमी देवदत्त का स्मरण हो आया।

    उसने अपने अतिथि देवशर्मा को एक टूटी-फूटी बिना बिस्तर की चारपाई पर लेटने को कहा और बोली-‘भगवन ! मैं किसी अन्य ग्राम से यहां आई अपनी सहेली से मिलकर आती है, तब तक आप मेरे घर पर विश्राम कीजिए।’

    इस प्रकार जब वह बन ठनकर अपने प्रेमी से मिलने जाने लगी, तभी नशे में चूर उसका पति लौट आया। पति को आता देख जुलाहे की पली वापस अपने घर में घुस गई किंतु जुलाहे ने उसे बन ठनकर जाते और वापस लौटते देख लिया या।

    अपनी पली के दुराचार की बात उसने पहले ही सुन रखी थी, किंतु आज उसने स्वयं अपनी आंखों से देख लिया तो क्रुद्ध होकर पूछने लगा कि वह कहां जा रही थी? जुलाहे की पली बोली मैं कहां जाती !

    तुमको नशा चढ़ा हुआ है इसलिए बहक रहे हो।’ किंतु जुलाहे को संतोष नहीं हुआ। उसने अपनी पली की बहुत पिटाई की और उसे एक खंभे से बांधकर नशे में सो गया। थोड़ी देर बाद जुलाहिन की एक सहेली, जो एक नाई की पली थी,

    ने आकर उसे बताया कि उसका प्रेमी देवदत्त उसकी प्रतीक्षा कर रहा है तो वह कहने लगी कि वह कैसे जा सकती है, उसको तो एक खंभे से बांध दिया गया है उसने अपनी सहेली से कहा कि वह जाकर उसको कह दे कि आज रात उसका आना संभव नहीं है।

    नाइन कहने लगी कि यह तो कलटा का धर्म नहीं है। तब जुलाहिन ने कहा कि फिर वहा बताए कि वह किस प्रकार जा सकती है? इस पर नाइन कहने लगी कि पना स्थान पर वह उसको बांध दे।

    उसका पति नशे में प्रातः तक सोया पड़ा रहेगा, जागन से पूर्व ही वह आकर उसके बंधन मुक्त कर स्वयं बंध जाएगी। वैसा ही हुआ। जुलाहिन अपनी जगह नाइन को खम्भे से बांधकर चली गई।

    उसके जाने के कुछ ही देर बाद जुलाहे की नींद खुल गई। उसका नशा भी कम हो गया था। उसने नाइन को अपनी पली समझ यह कहा कि यदि वह भविष्य में दुराचार न करने का वचन दे तो वह उसको बंधनमुक्त कर सकता है।

    किंतु बोलने पर कहीं जुलाहा उसकी आवाज पहचान न ले, यही सोचकर भयभीत नाइन ने कोई उत्तर न दिया। उसकी चुप्पी पर जुलाहे को क्रोध आ गया। उसने छुरी लेकर उसकी नाक काट डाली। इसके बाद वह फिर जाकर सो गया।

    अपने प्रेमी से मिलने के बाद जब जुलाहिन लौटी तो उसने अपनी सहेली नाइन की दुर्दशा देखी। उसने उसके बंधन खोले और उसके स्थान पर स्वयं बंध गई जब जुलाहे की नींद खुली तो उसने कहा—’कुलटा ।

    यदि इस बार भी तू नहीं बोली तो मैं तेरे कान भी काट लूंगा।’ यह सुनकर उसकी पली कहने लगी—’मूर्ख ! मुझ जैसी सती स्त्री का अपमान करने का साहस किसमें है ?

    यदि मुझमें सतीत्व है तो देवतागण मेरी नाक को पुनः उसी स्थान पर लगा दें और यदि मुझमें तनिक भी परपुरुष की आकांक्षा हो तो वे मुझे भस्म कर दें।’ इस प्रकार कहने के बाद कुछ क्षण उपरान्त वह बोली-‘मूर्ख देख,

    मेरे सतीत्व के प्रभाव से मेरी नाक पुनः यथास्थान लग गई है।’ जुलाहे ने जब अपनी पली की नाक यथास्थान देखी तो वह आश्चर्यचकित रह गया। उसने तुरन्त उसे बंधनमुक्त कर दिया और उसकी चाटुकारी करने लगा।

    देवशर्मा यह सब देख रहा था। वह विचार कर रहा था कि स्त्रियां असुरों की सारी माया जानती हैं। ये तो हंसते हुए को हंसकर, रोते हुए को रोकर और क्रुद्ध व्यक्ति को अपने प्रिय वाक्यों से वश में कर लेती हैं।

    इस प्रकार सोचते हुए देवशर्मा ने वह रात बड़े कष्ट में व्यतीत की। उधर, नाइन जब अपने घर पहुंची तो उसको अपनी नाक को छिपाने के बारे में सोचना पड़ रहा था।

    वह विचार कर ही रही थी कि उसके पति ने द्वार पर खड़े होकर आवाज लगाई कि वह उसके औजारों की पेटी पकड़ा दे जिससे वह प्रातःकाल नगर में जाकर अपने यजमानों की हजामत आदि कर आए।

    नाइन ने पेटी में से एक उस्तरा निकालकर अपने पति की ओर फेंक दिया। इस पर नाई को क्रोध आ गया और उसने वह उस्तरा उठाकर वापस अपनी पत्नी की ओर फेंक दिया। बस फिर क्या था, नाइन चिल्ला पड़ी।

    उसने रोते-चीखते हुए कहना आरंभ कर दिया कि उसके पति ने उसकी नाक काट दी है। उसका शोर सुनकर नगररक्षक वहां आ पहुंचे और उन्होंने नाई को बंदी बना लिया।

    नाई को न्यायालय में उपस्थित कर उस पर आरोप लगाया गया कि उसने अपनी निरपराध पत्नी की नाक काटी है। न्यायाधीशों ने इसका कारण जानना चाहा तो दुखी नाई कोई उत्तर नहीं दे पाया।

    इस पर न्यायाधीशों ने उसके मौन को उसकी स्वीकृति मान लिया और उसको प्राणदंड देने का निश्चय कर लिया। सैनिक जब नाई को वधस्थल की ओर ले जाने लगे, तभी देवशर्मा न्यायाधीश के पास पहुंच गया।

    उसने सारी बात बताई तो नाई को तुरंत दोषमुक्त कर प्राणदान दे दिया गया। देव शर्मा अब तक अपना धन जाने का शोक भूल चुका था। वह आगे जाने की अपेक्षा पीछे अपने मठ की ओर लौट चला।

    यह कथा सुनाकर दमनक ने कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि कभी-कभी अपने दोष के कारण भी मनुष्य को हानि उठानी पड़ती है।’ ‘ऐसी स्थिति में हमको क्या करना चाहिए?’ करटक ने पूछा। ‘बस, एक ही उपाय है।’

    दमनक बोला-‘मैं किसी प्रकार अपनी बुद्धि के प्रयोग से संजीवक को राजा से प्रथक कर दूंगा।’ इस पर करटक ने आशंका व्यक्त की-‘तुम्हारे षड्यंत्र का पता यदि पिंगलक अथवा संजीवक को चल गया तो?’

    ‘तब मैं अपने बचाव के लिए कोई और युक्ति सोच लूंगा। कहा भी गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति को अपना प्रयल नहीं छोड़ना चाहिए। उद्योगी पुरुष की तो देवता भी सहायता करते हैं।

    जैसा कि विष्णु के चक्र और गरुड़ ने युद्ध में कौलिक की सहायता की थी। सुनियोजित षड्यंत्र के रहस्य का तो ब्रह्मा को भी ज्ञान नहीं होता। अपने सुगूढ़ ढोंग के कारण ही कौलिक ने राजकन्या का उपभोग किया था।

     

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